________________
श्रावकप्रज्ञप्तिः
१. तत्त्वार्थसूत्र में गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का विभाग न करके सामान्य से शीलव्रतों के रूप में उन दिग्वतादि सात व्रतों का उल्लेख किया गया है तथा भाष्य में उनका निर्देश उत्तरव्रतों के रूप में किया गया है।
परन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में उक्त गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का विभाग स्पष्ट रूप में किया गया है। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा श्रावकप्रज्ञप्ति में उनका क्रमव्यत्यय भी देखा जाता है।
२. सम्यक्त्व के दूसरे अतिचारस्वरूप कांक्षा का लक्षण तत्त्वार्थभाष्य में इस प्रकार कहा गया है-ऐहलौकिक-पारलौकिकेषु विषयेष्वाशंसा कांक्षा। तत्त्वार्थभाष्य ७-१८ ।
परन्त श्रावकप्रज्ञप्ति में उसका स्वरूप कछ भिन्न रूप में इस प्रकार कहा गया है-कंखा अन्नन्नदंसगणग्गाहो । (गाथा ८७)
३. तत्त्वार्थसूत्र (७-२१) में सत्याणुव्रत के अतिचारों में जहाँ न्यासापहार और साकारमन्त्रभेद को ग्रहण किया गया है वहाँ श्रावकप्रज्ञप्ति (२६३) में उनके स्थान में सहसा-अभ्याख्यान और स्वदारमन्त्रभेद इन दो अतिचारों को ग्रहण किया गया है।
४. तत्त्वार्थसूत्र (७-२७) में जहाँ अनर्थदण्डव्रत के अतिचारों में 'असमीक्ष्याधिकरण' को ग्रहण किया गया है वहाँ श्रावकप्रज्ञप्ति (२९१) में उसके स्थान में 'संयुक्ताधिकरण' को ग्रहण किया गया है।
५. तत्त्वार्थसूत्र (७-२९) में पौषधोपवासव्रत के अतिचार इस प्रकार कहे गये हैं-अप्रत्यवेक्षित और अप्रमार्जित उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित आदान-निक्षेप, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित संस्तारोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान।
परन्तु श्राः प्र. (३२३-३२४) में ये अतिचार कुछ भिन्न रूप में इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैं-अप्रतिलेखित-दुःखप्रतिलेखित शय्या-संस्तारक, अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित शय्या-संस्तारक, अप्रतिलेखितदुःप्रतिलेखित उच्चारादिभू, अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित उच्चारादिभू और सम्यक् अननुपालन।
६. त. सूत्र व उसके भाष्य (७-१६) में पौषधोपवास के उन आहारपौषधादि चार भेदों का उल्लेख नहीं किया गया जिनका निर्देश श्रा. प्र. (३२१) में पौषधोपवास के लक्षण के रूप में ही किया गया है।
७. इसी प्रकार दोनों ग्रन्थों में उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के अतिचार भी कुछ भिन्न रूप में पाये जाते हैं। जैसे
सचित्त, सचित्तसम्बद्ध, सचितसंमिश्र, अभिषव और दुष्पक्व आहार। (त. सू. ७-३०) सचित्ताहार, सचित्तप्रतिबद्धाहार, अपक्व, दुष्पक्व और तुच्छौषधिभक्षण। (श्रा. प्र. २८६)
१. व्रत-शोलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम्। तत्त्वार्थसूत्र ७-१६ । २. एभिश्च दिग्वतादिभिरुत्तरव्रतैः सम्पन्नोऽगारी व्रती भवति। (तत्त्वार्थभाष्य ७-१६) ३. श्रावकप्रज्ञप्ति ६। ४. तत्त्वार्थभाष्य (७-१६)-दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, पौषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण,
अतिथिसंविभागव्रत। श्रावकप्रज्ञप्ति-दिग्वत (२८०), उपभोगपरिभोगपरिमाण (२८४), अनर्थदण्डविरति (२८६), सामायिक (२९२), देशावकाशिक (३१८-१९), पौषधोपवास (३२१), अतिथिसंविभाग (३२५-३२६)। ५. श्रावकप्रज्ञप्ति के अन्तर्गत यह गाथा भाष्यगाथा के रूप में निशीथचूर्णि (१-२४) में उसी रूप में उपलब्ध होती है।
तत्त्वार्थसूत्र के वृत्तिकार सिद्धसेन गणि ने उक्त कांक्षा के लक्षण में दर्शन को भी ग्रहण कर लिया है। यथा-प्रकर्षाप्रकर्षवृत्तित्वात् अन्यान्यदर्शने सति ग्राहोऽभिलाषस्तद्विषयः, आशंसा प्रीतिरभिलाषः काक्षेत्यनान्तरम्, दर्शनेषु वा। तथा चागमे-कंखा अण्णण्णदंसणग्गाहो।