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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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तेषां प्रदानं अन्यस्मै क्रोधाभिभूतायानभिभूताय वेति। पापोपदेशश्चेति सूचनात्सूत्रमिति न्यायात्पापकर्मोपदेशः, पापं यत्कर्म कृष्यादि तदुपदेशो यथा कृष्यादि कुवित्यादि ॥२८९॥ अनर्थदण्डस्यैव बहुबन्धहेतुतां ख्यापयन्नाह
अटेण तं न बंधइ जमणद्वेणं तु थेव-बहुभावा ।
अट्ठे कालाईया नियामगा ने उ अणट्ठाए ॥२९०॥ अर्थेन कुटुंबादिनिमित्तेन प्रवर्तमानस्तन्न बध्नाति तत्कर्म नादत्ते यदनर्थेन यद्विना प्रयोजनेन प्रवर्तमानः। कुतः ? स्तोकबहुभावात् स्तोकभावेन स्तोकं प्रयोजनं परिमितत्वात्, बह्वप्रयोजनं प्रमादापरिमितत्वात् । तथा चाह-अर्थे प्रयोजने। कालादयो नियामकाः कालाद्यपेक्षं हि कृष्याद्यपि भवति, न त्वनय प्रयोजनमन्तरेणापि प्रवृत्तौ सदा प्रवृत्तेरिति ॥२९०॥
___ इदमपि चातिचाररहितमेवानुपालनीयमिति अतः तानाह--
सागार धर्मामृत ( ५, १०-११) में भी प्रकट किया गया है। प्रमादका अर्थ प्रायः असावधानी होता है। तदनुसार इसे अनर्थदण्ड कहना भी सार्थक सिद्ध होता है, क्योंकि इसमें उपर्युक्त कार्य असावधानीसे निरर्थक ही किये जाते हैं। (३) हिंसाप्रदान-आयुध, अग्नि और विष आदि हिंसोपकरणोंको कारणमें कार्यका उपचार करके हिंसा कहा जाता है। इनको क्रोधाभिभूत अथवा उससे रहित भी किसी अन्यको देना, इसे हिंसादान कहा जाता है। (४) पापोपदेश-पाप शब्दसे यहां पापोत्पादक कार्यकी सूचना की गयी है। ऐसे कार्य यहां तिथंच आदि जीवोंको कष्ट पहुंचानेवाले कृषि व वाणिज्य आदि हो सकते हैं। इनका विना किसी अपने प्रयोजनके दूसरोंको उपदेश देना, यह पापोपदेश कहलाता है ।।२८।।
आगे ये अनर्थक ही कार्य बन्धके हेतु हैं, इसे स्पष्ट किया जाता है
प्रयोजनके वश प्रवर्तमान जीव उस कर्मको नहीं बांधता है, जिसे कि विना किसी भी प्रयोजनके प्रवर्तमान जीव बांधता है। उसका कारण प्रयोजनकी हीनाधिकता है। प्रयोजनके होनेपर काल आदि नियामक हैं, जबकि उस प्रयोजनके बिना उसमें कालादि कोई भी नियामक
नहीं रहते।
_ विवेचन-इसका अभिप्राय यह है कि जीव किसी कौटुम्बिक प्रयोजनके वश जब किसी कृषि आदि कार्यमें प्रवृत होता है तब वह आवश्यक प्रयोजनके पूर्ण होने तक ही उसमें प्रवृत्त रहता है, प्रयोजनके पूर्ण हो जानेपर वह उससे विरत होता है। इसीलिए उसके तज्जन्य कर्मका बन्ध नहीं होता, क्योंकि काल आदि नियामक रहते हैं। इसके विपरीत जो बिना किसी प्रयोजनके अनर्थक कार्यों में प्रवृत्त होता है, उसे उससे रोकने के लिए काल आदिका कुछ नियम नहीं रहता। इस प्रकार कोई सीमा न रहनेसे वह प्रमादके वशोभत होकर अपरिमित पापकार्योंको निरर्थक ही किया करता है, अतः उससे उसके बहुतर कर्मका बन्ध अवश्यम्भावी है। यही कारण है जो प्रकृत तृतीय गुणव्रतमें श्रावकको ऐसे कितने ही अनर्थदण्डोंका परित्याग कराया गया है ।।२९०॥
इसके भी अतिचार रहित पालनके लिए आगे उसके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है
१. अणियामया ण ।