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द्वितीयगुणवतप्ररूपणा ___स उपभोगः परिभोगश्च । द्विविधो द्विप्रकारः। भोजनतो भोजनमाश्रित्य । कर्मतश्चैव भवति ज्ञातव्यः, कर्म चाङ्गीकृत्येत्यर्थः। तत्र भोजनतः श्रावकेणोत्सर्गतो निरवद्याहारभोजिना भवितव्यम् । कर्मतोऽपि प्रायो निरवद्यकर्मानुष्ठानयुक्तेन । विचित्रत्वाच्च देशविरतेश्चित्रोऽत्रापवाव इत्यत एवेदमेवेदमेवेति वा सूत्रे न नियमितमतिचाराभिधानाच्च विचित्रस्तद्विधिः स्वधियाव. सेय इति । तथा च वृद्धसंप्रदायः-भोजनओ सावगो उस्सग्गेण फासुयं एसणियं आहारं आहारेज्जा। तस्सासति अणेसणीयमविसचित्तवज्ज। तस्सासति अणंतकायं बहुबोयाणि परिहरेज्जा-असणे अल्लग-मूलग-मंसादि, पाणे मंसरस मज्जाइ, खाइमे पंचुंबरिगादि, सादिमे महमाइ। एवं परिभोगे वि वत्थाणि थल-धवलप्पमल्लाणि परिमियाणि परिभंजेज्जा सासणगोरवत्थसुचरिओ (?) वरसिभाषा याव देवदूसाइ परिभोगेण वि परिमाणं करेज्जा। कम्मओ वि अकम्मो ण तरइ जीविउं ताहे अच्चन्तसावज्जाणि परिहरेज्जा। एत्थं पि एक्कसि चेव जं कीरइ कम्मं पहरववहरणादि विवक्खाए तमुवभोगो, पुणो पुणो य जं तं पुण परिभोगो ति। अन्ने पुण कम्मपक्खे उवभोगपरिभोगजोयणं ण करिति । उवन्नासोय एयस्सुवभोगपरिभोगकारणभावेणंति । इति कृतं प्रसङ्गेन।
__इहेदमपि चातिचाररहितमनुपालनीयमिति तदभिधित्सयाह-अतिचारानपि चैतयोभॊजन-कर्मणोः वक्ष्येऽभिधास्ये पृथक् प्रत्येकम् । समासेन संक्षेपेणेति ॥२८५॥
उस उपभोग और परिभोगको भोजन और कमंकी अपेक्षा दो प्रकारका जानना चाहिए। आगे इनके अतिचारोंका भी निर्देश पृथक् पृथक् संक्षेपमें इस प्रकारसे किया जाता है।
विवेचन-प्रकृत उपभोग-परिमाणव्रतमें श्रावकको भोजनकी अपेक्षा सामान्यसे निर्दोष आहारको ग्रहण करना चाहिए। कर्मकी अपेक्षा भी उसे प्रायः निर्दोष कर्मके अनुष्ठानसे युक्त होना चाहिए। देशविरति अनेक प्रकारकी है, अतः उसके विषयमें अपवाद भी सम्भव है। इसीसे 'यह इसी प्रकारका है अथवा यह इसी प्रकारका है ऐसा सूत्र में नियम नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त उसके अतिचार भी कहे गये हैं, इसलिए उसके विधानका निश्चय अपनी बुद्धिके अनुसार करना चाहिए।
यहां टीकाकारने 'वृद्धसम्प्रदाय' के अनुसार उसका स्पष्टीकरण करते हुए यह कहा है कि श्रावकको सामान्यसे प्रासुक ( जीव-जन्तुओंसे रहित ) और एषणीय ( ग्रहण करने योग्य ) आहारका उपभोग करना चाहिए। यदि प्रासुक व ऐषणीय आहारको प्राप्ति सम्भव न हो तो सचित्तको छोड़कर अनेषणीयको भी ग्रहण कर सकता है। पर यदि अचित्त भी उक्त भोजन न प्राप्त हो सके तो सचित्तमें अनन्तकाय ( साधारण वनस्पति ) और बहुबोजोंको छोड़ना चाहिए । चार प्रकारके आहारमें-से अशनमें आर्द्रक ( अदरख ), मूली और मांस आदिको; पान में मांसरस और मद्य आदि, खाद्यमें पांच उदुम्बर फल आदि और स्वाद्यमें मधु आदिको छोड़ना चाहिए। इस प्रकारसे यह भोगके विषयमें निर्देश किया गया है। इसी प्रकार परिभोगमें भी श्रावकको स्थल, धवल और अल्प मूल्य वाले वस्त्रोंका परिमित रूपमें परिभोग करना चाहिए।... ....(?) देवदूष्य वस्त्र तक परिभोगसे भी प्रमाण करना चाहिए । कर्मकी अपेक्षा श्रावक चूंकि कर्मके विना जीवित नहीं रह सकता है, इसलिए कर्म करते हुए उसे अत्यन्त सावध कर्मों को छोड़ना चाहिए। यहां (कर्ममें) भी जो कर्म पहर-व्यवहारादिको विवक्षासे एक ही बार किया जाता है उसे १. अ सो दुविहो स उपभोगः परिभोगश्च । २. अ इत्ये। एवेदमूले ति वा सूत्रे । ३. अ ताहि ।
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