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१६२ . श्रावकप्रज्ञप्तिः
[ २७५ - वर्जयेन्मोहकरं परयुवतिदर्शनम्, आदिशब्दात्संभाषणादिपरिग्रहः। किंभूतम् ? सविकारं सविभ्रमम् । एते दर्शनादयो यस्मान्मदनबाणाश्चारित्रप्राणान् विनाशयन्तीति । उक्तं च
अनिशमशुभसंज्ञाभावनासन्निहत्या कुरुत कुशलपक्षप्राणरक्षां नयज्ञाः। हृदयमितरथा हि स्त्रीविलासाभिधाना मदन-शबरबाणश्रेणयः काणयन्ति ।
इति ॥२७४|| उक्तं चतुर्थमणुव्रतमधुना पञ्चममाह
सचित्ताचित्तेसुं इच्छापरिमाणमो य पंचमयं ।
भणियं अणुव्वयं खलु समासओ शंतनाणीहिं ॥२७॥ सचित्ताचित्तेषु द्विपदादि-हिरण्यादिषु। इच्छायाः परिमाणमिच्छापरिमाणं, एतावतामूर्ध्वमग्रहणमित्यर्थः। एतत्पञ्चममुपन्यासक्रमप्रामाण्याद्भणितमणुवतं खलु समासतः सामान्येनानन्तज्ञानिभिस्तीर्थकरैरिति ॥२७५॥
भेएण खित्तवत्थूहिरण्णमाईसु होइ नायव्वं । दुपयाईसु य सम्मं वज्जणमेयस्स पुव्वुत्तं ॥२७६॥
आगे प्रकृत अणुव्रतको सुरक्षाको दृष्टि से रागपूर्ण दृष्टिसे परयुवतीके देखनेका भी निषेध किया जाता है
रागादिरूप विकारके साथ परयुवतीका देखना और उसके साथ सम्भाषण करना आदि मोहको उत्पन्न करनेवाला है, अतः उसका परित्याग करना चाहिए, क्योंकि ये ऐसे काम-बाण हैं जो संयमीके चारित्ररूप प्राणोंको नष्ट कर दिया करते हैं।
कहा भी है-आहार व मैथुन आदि अशुभ संज्ञाओंको भावनाको छोड़कर नीतिमान् पुरुषोंको अपने संयमरूप प्राणोंका संरक्षण करना चाहिए। अन्यथा, कामरूप भोलके बाणोंकी पंक्तियां, जिन्हें स्त्रीविलास कहा जाता है, हृदयको व्यथित कर देनेवाली हैं ।।२७४॥
आगे क्रमप्राप्त पांचवें अणुव्रत ( इच्छापरिमाणवत ) का स्वरूप दिखलाया जाता है
मनुष्य, स्त्री, पुत्र व दासी-दास आदि द्विपद और हाथी-घोड़ा आदि चतुष्पद इन सचित्त वस्तुओंके विषयमें तथा सुवर्ण व चांदी आदि अचित्त वस्तुओंको विषयमें जो इच्छाका प्रमाण किया जाता है कि मैं उनमें अमुक-अमुक वस्तुको इतने प्रमाणमें ग्रहण करूंगा, इससे अधिकको नहीं ग्रहण करूंगा, इसे संक्षेपमें अनन्तज्ञानियों ( वीतराग सर्वज्ञ ) के द्वारा पांचवां अणुव्रत (परिग्रहपरिमाण ) कहा गया है ।।२७५॥
आगे इसे विशेष रूपसे स्पष्ट किया जाता है
विशेष रूपसे क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य आदि अचित्त वस्तुओंके विषयमें तथा स्त्री-पुत्रादि द्विपद सचित्त वस्तुओंके विषयमें पूर्वोक्त (१०८) विधिके अनुसार प्रकृत अणुव्रतके विषयका समीचीनतया परित्याग करना; इसे पांचवां अणुव्रत जानना चाहिए। १. अ 'इति' नास्ति । २. अ समासतो। ३. भ भेदेण खेत्त ।