________________
- २५८] अहिंसाणुव्रतस्य अतिचाराः
१५१ प्रतिपद्य चाङ्गीकृत्य च व्रतम् । तस्य व्रतस्यातिचारा अतिक्रमणहेतवो यथाविधि यथाप्रकारम् । ज्ञात्वा परिहर्तव्याः सर्वैः प्रकारैर्वजनीयाः प्रयत्नेनेति योगः। किमर्थम् ? संपूर्णपालनार्थम् । न ह्यतिचारवतः संपूर्णा तत्पालना, तद्भावे तत्खंडनादिप्रसंगादिति ॥२५॥ तथा चाह
बंधवहछविच्छेए अइभारे भत्तपाणबुच्छेए ।
कोहाइसियमणो गो-मणुयाईण नो कुज्जा ।।२५८॥ तत्र बन्धनं बन्धः संयमनं रज्जु-दामनकादिभिः। १। हननं वधस्ताडनं केशादिभिः।२। छविः शरीरम, तस्य छेदः पाटनं करपत्रादिः । ३३ भरणं भारः, अतिभरणं गतिभारः, प्रभूतस्य पूगफलादेः स्कन्धपृष्ठारोपणमित्यर्थः । ४। भक्तमशनमोदनादि, पानं पेयमुदकादि, तस्य व्यवच्छेदो निरोधः, अदानमित्यर्थः । ५। एतान् समाचरन्नतिवरति प्रथमाणु बलम् । एतान् क्रोधादिदूषितमना न कुर्यादिति अनेनापवादमाह-अन्यथाकरणेऽप्रतिषेधावगमात् ।
तदत्रायं पूर्वाचार्योक्तविधिः-बंधो दविहो दपयाणं चउपयाणं च अदाल अणटारनवटाए बंधिउं । अट्टाए दुविहो सावेक्खो निरवेक्खो य । निरवेक्खो निच्चलं धाणियं जं बंधइ, सावेक्खो जं दामगंठिणा, जंच सक्केइ पलिवणगादिसु मुंचिउं छिदिउं वाण संसरपासएणं बंधेयव्वं । एयं ताव चउप्पयाणं । दुपयाणंपि दासो दासी वा चोरो वा, पुत्तो वाण पतगाह जइ बझंति तो सावेक्खा बंधेयन्वा रक्खियव्वा य जहा अग्गिभयादिसु ण विणस्तंति। ताणि किर दुपयचउप्पयाणि सावगेणं गेलियवाणि जाणि अबद्धाणि चेव अच्छति। वहो वि तह चेव । वहो
व्रतको स्वीकार करके और आगमोक्त विधिके अनुसार उसके अतिचारोंको जानकर स्वीकृत व्रतके पूर्णतया परिपालनके लिए प्रयत्नपूर्वक उन अतिचारोंका परित्याग करना चाहिए।
- विवेचन-स्वीकृत व्रतके देशतः भंग होनेका नाम अतिचार है । जिस व्रतको स्वीकार किया है आगमोक्त विधिके अनुसार उसका पूर्णतया निर्दोष-परिपालनके लिए व्रतको भंग करने वाले अतिचारोंको जानकर उनका सर्वथा परित्याग करना उचित है ।।२५७॥
___अब प्रकृतस्थूलप्राणिवधविरति नामक प्रथम अणुव्रतके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है
प्रथम अणुव्रतका धारक श्रावक क्रोधादि कषायोंसे मनको कलुषित कर गाय आदि पशुओं और मनुष्यों आदिका बन्ध, वध, छविछेद, अतिभार और भक्त-पानव्युच्छेद न करे।
विवेचन-प्रकृत गाथामें अवसरप्राप्त उस स्थूलप्राणातिपात अणुव्रतको मलिन करनेवाले पांच अतिचारोंके परित्यागको प्रेरणा करते हुए उनके नामोंका निर्देश किया गया है। (१) उनमें प्रथम अतिचार बन्ध है । बन्धका अर्थ है गाय-भैंस आदि पशुओं और मनुष्योंको रस्सो आदिसे बांधकर रखना। यह बन्धन दो पाँववाले मनुष्यों आदिका तथा चार पांववाले गाय, भैंस और घोड़ा आदिका किया जाता है। वह सार्थक और अनर्थ रुके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें से अणुव्रती श्रावक अनर्थक-प्रयोजनके बिना-कभी बन्धनमें प्रवृत्त नहीं होता। सार्थक बन्धन भी सापेक्ष और निरपेक्षके भेदसे दो प्रकारका है। मनुष्य व.पशुओंको जो प्रयोजनके वश बांधा जाता है वह सार्थक बन्ध तो है, पर यदि इसमें उनकी सुरक्षाकी ओर ध्यान न देकर उन्हें अतिशय दृढ़तापूर्वक बांधा जाता है तो यह निरपेक्ष सार्थक बन्धन कहलाता है। इसमेंसे १. अ अस्याः (२५८) गाथायाः संस्कृतछायाप्यत्रोपलभ्यते । २. भक्षिभिः सह वंधननस्साडनं केशाभिदिभिः।