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प्रस्तावना
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गया है। उक्त सातों व्रतों का क्रमविन्यास उवासगदसाओ और श्रा. प्र. आदि में समान व तत्त्वार्थसत्र से कुछ भिन्न है। इस प्रकार देशावकाशिक या देशव्रत के विषय में उक्त दोनों सम्प्रदायों में तथा प्रत्येक में भी मतभेद रहा है।
___३. किसी-किसी व्रत के अतिचारों के विषय में जैसे एक ही सम्प्रदाय में कुछ मतभेद उपलब्ध होता है वैसे ही वह उभय सम्प्रदायों के मध्य में भी देखा जाता है। यथा-दि. सम्प्रदाय में उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के पाँच अतिचारों के विषय में त. सूत्र (७-३५) और रत्नकरण्डक (९०) के मध्य में जैसा मतभेद रहा है वैसा ही मतभेद श्वे. सम्प्रदाय में भी उक्त उपभोगपरिभोगपरिमाण के अतिचारों के विषय में त. सूत्र (७-३०) और उवा. द. (१-५१) एवं श्रा. प्र. (२८७-२८८) के अनुसार भी कुछ अन्य प्रकार का रहा है। पौषधोपवास-विषयक अतिचारों के विषय में भी त. सू. (७-२९) और उवा. द. (५५) तथा श्रा. प्र. (३२३-३२४) के अनुसार कुछ मतभेद देखा जाता है।
विशेषता-१. श्रावकधर्म के अन्तर्गत मूल और उत्तर गुणों का विभाग जैसा दि. सम्प्रदाय में देखा जाता है वैसा वह श्वे. सम्प्रदाय में दृष्टिगोचर नहीं होता। उदाहरणार्थ दि. सम्प्रदाय के रत्नकरण्डक (६६) में पाँच अणुव्रतों के साथ मद्य, मांस और मधु के त्याग को आठ मूल गुण कहा गया है। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय (६१) में मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलों के त्याग को आठ मूल गुण बतलाकर अहिंसाणुव्रत के संरक्षणार्थ प्रयत्नपूर्वक इनके परिपालन की प्रेरणा की गयी है। आगे वहाँ (६२-७४) उक्त मद्यादि आठों के दोषों को कुछ विस्तार से दिखलाते हुए उनका परित्याग कर देने पर प्राणी जिनधर्मदेशना के पात्र होते हैं, ऐसा भी स्पष्ट निर्देश किया गया है। सा. ध. (२-३) में प्रथम पाक्षिक श्रावक के लिए ही जिनवाणी के श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) पूर्वक उक्त. पु. सि. में निर्दिष्ट उन मद्यादि आठ के परित्याग को अहिंसाव्रत की सिद्धि के लिए आवश्यक बतलाया गया है। वहाँ (२-३ व २-१८) इन मूल गुणों के विषय में जो कुछ थोड़ा मतभेद रहा है उसका भी उल्लेख कर दिया गया है। उपासकाध्ययन (३१४) और सा. ध. (४-४) में पाँच अणुव्रतों', तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों इन बारह व्रतों को श्रावक के उत्तरगुण कहा गया है। ये चूंकि मूल गुणों के अनन्तर सेवनीय हैं तथा उनसे उत्कृष्ट भी हैं, इसीलिए उन्हें उक्त श्लोक की स्वो. टीका में उत्तर गुण कहा गया है।
त. भाष्य में दिग्व्रतादि सात को जो उत्तरव्रत कहा गया है, सम्भव है उससे भाष्यकार को अहिंसादि पाँच अणुव्रत मूलव्रत के रूप में अभीष्ट रहे हों।
२. पद्मनन्दिपंचविंशति (६-७, ४०३) आदि कुछ दि. ग्रन्थों में देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छह को प्रतिदिन अनुष्ठेय गृहस्थ के छह आवश्यक कर्म कहा गया है। श्वे. ग्रन्थों में कहीं ऐसे दैनिक आवश्यक कर्मों का उल्लेख किया गया या नहीं यह मुझे देखने में नहीं आया।
३. श्रावकधर्म के अन्तर्गत ग्यारह प्रतिमाओं के पालन का उल्लेख उक्त दोनों ही सम्प्रदायों में किया गया है। सर्वप्रथम देशविरत रूप में इन प्रतिमाओं के परिपालन का उल्लेख चारित्रप्राभृत (२२) में दृष्टिगोचर होता है। इसके पश्चात्कालीन रत्नकरण्डक (१३६-१४७) में श्रावकपद भेदों के रूप में उन ग्यारह प्रतिमाओं का निर्देश करते हुए पृथक्-पृथक् उनके स्वरूप को भी प्रकट किया गया है। बाद के तो
१. सा. ध. की इस स्वो. टीका में मतान्तर से रात्रिभोजन व्रत का भी उल्लेख अणुव्रत के रूप में किया गया है।
यथा-अस्य पञ्चधात्वं बहुमतत्वादिष्यते। क्वचित्तु रात्र्यभोजनमप्यणुव्रतमुच्यते। सा. ध. स्वो. टीका ४-४। २. एभिश्च दिग्वतादिभिरुत्तरव्रतैः सम्पन्नोऽगारी व्रती भवति। त. भाष्य ७-१६ ।