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बालादिवविषयकदुरभिप्रायनिराकरणम् न च तस्य साधोस्तन्निमित्तः कुलिङ्गिव्यापत्तिकारणो बन्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये। किमिति ? यस्मात्सोऽप्रमत्तः, सूत्राज्ञया प्रवृत्तः। सा च हिंसा प्रमाद इत्येवं निर्दिष्टा तीर्थकरगणधरैरिति इयं द्रव्यतो हिंसा, न भावतः ॥२२४॥ सांप्रतं भावतो न द्रव्यत इत्युच्यते--
मंदपगासे देसे रज्जुकिनाहिसरिसयं दर्छ।
अच्छित्तु तिक्खखग्गं वहिज्ज तं तप्परीणामो ॥२२५॥ मन्दप्रकाशे देशे ध्यामले निम्नादौ । रज्जु दर्भादिविकाररूपाम् । कृष्णाहिसदृशीं कृष्णसर्पतुल्याम् । दृष्ट्वा आकृष्य तीक्ष्णखड्गं बधेत् ताम् हन्यादित्यर्थः। तत्परिणामो वधपरिणाम इति ॥२२५॥
सप्पवहाभामि वि वहपरिणामाउ चेव एयस्स ।
नियमेण संपराइयबंधो खलु होइ नायव्यो ॥२२६।। सर्ववधाभावेऽपि तत्त्वतः वधपरिणामादेवैतस्य व्यापादकस्य । नियमेन सांपरायिको बन्धो भवपरंपराहेतुः कर्मयोगः। खलु भवति ज्ञातव्य इति ॥२२६॥
_ विवेचन-कर्मबन्धका कारण संरेश और विशुद्धि है। संक्लेशसे प्राणोके जहां पापका बन्ध होता है वहां विद्धिसे उसके पण्यका बन्ध होता है। इस प्रकार जो साध ईर्यासमितिसेचार हाथ भूमिको देखकर सावधानीसे-गमन कर रहा है उसके पांवोंके धरने-उठानेमें कदाचित् जन्तुओंका विघात हो सकता है, फिर भी आगममें उसके तन्निमित्तक किंचित् भी कर्मबन्ध नहीं कहा गया है। कारण इसका यही है कि उसके परिणाम प्राणिपीड़नके नहीं होते, वह तो उनके संरक्षणमें सावधान होकर ही गमन कर रहा है। उधर आगममें इस हिंसाका लक्षण प्रमाद ( असावधानी ) ही बतलाया है ( त. सू. ७१३ )। इसोलिए प्रमादसे रहित होनेके कारण । गमनादि क्रियामें कदाचित् जन्तुपीड़ाके होनेपर भी साधुके उसके निमित्तसे पापका बन्ध नहीं कहा गया है । यह द्रव्यहिंसाका उदाहरण है ॥२२३-२२४॥
आगे द्रव्यसे हिंसा न होकर भावसे होनेवाली हिंसाका स्वरूप दिखलाया जाता है
मन्द प्रकाशयुक्त देशमें काले सर्प-जैसो रस्सीको देखकर व तीक्ष्ण खड्गको खींचकर उसके मारनेका विचार करनेवाला कोई व्यक्ति उसका घात करता है ॥२२५॥
इस प्रकारसे सर्पके वधके न होनेपर भी हिंसाजनित पापका वह भागी होता है, इसे आगे प्रकट किया जाता है
तदनुसार सपेवधके बिना भी उसके केवल सर्पघातके परिणामसे ही नियमसे साम्परायिक -संसारपरम्पराका कारणभूत-बन्ध होता है, यह जानना चाहिए ॥२२६।।
विवेचन-अब यहाँ दूसरे प्रकारको हिंसाका स्वरूप दिखलाते हुए दृष्टान्त द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि कोई मनुष्य अंधेरेमें पड़ी हुई रस्सीको भ्रमवश काला सर्प समझकर उसे मार डालनेके विचारसे उसके ऊपर शस्त्रका प्रहार करता है। परन्तु यथार्थमें वह सर्प तो था नहीं, इसीलिए सर्पके घातके न होनेपर भी उस व्यक्तिके सर्पघातरूप हिंसासे जनित पापका बन्ध अवश्य होता है । इस प्रकार यहां द्रव्यसे हिंसाके न होनेपर भी भावहिंसारूप उस हिंसाके दूसरे भेदका उदाहरण दिया गया है ।।२२५-२२६।।
१. अ गणधरेरित्यादितीर्थ द्रव्यतो। २. अ तप्परीणामे। ३.अ सांप्रतं परायिको।