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अकालमरणाभाववादिनामभिमतनिरासः
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द्रव्यादिपञ्चकं प्रति द्रव्यं क्षेत्रं कालं भवं भावं च प्रतीत्य । यथा-द्रव्यं माहिषं दधि, क्षेत्रं जांगलम्, कालं प्रावृड्लक्षणम्, भवमेकेन्द्रियादिकम्, भावमौदयादिकमालस्यादिकं वा प्रतीत्योदयो निद्रावेदनीयस्य । एवं व्यत्ययानां क्षयादियोजना कार्या । युक्तमुपक्रामणमंतोऽपि अनेन कारणं कर्मण उपक्रमो युज्यत इति इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् ॥१९७॥
अन्यथेदमनिष्टमापद्यते इति दर्शयन्नाह
जह या भूइओ च्चिय खंविज्जए कम्म नन्नहाणुमयं । तेणासंखभवज्जियनाणा गइ कारणत्तणओ ॥१९८॥
यदि चानुभूतित एव विपाकानुभवेनैव । क्षप्यते कर्म, नान्यथानुमतमुपक्रमद्वारेण । तेन प्रकारेणासङ्ख्यात भवाजितनानागतिकारणत्वात् कर्मणः असङ्ख्यातभवाजितं हि विचित्रगतिहेतुत्वान्नारका दिनानागतिकारणमेव भवतीति ॥। १९८ ।।
तत्र-
नाणाभवाणुभवणाभावा एगंमि पज्जएणं वा । अणुओ बंधाओ सुक्खाभावो स चाणिहो ॥ १९९ ॥
नानाभवानुभवनाभावादेकस्मिन् । तथाहि - नानुपक्रमतो नारकादिनानाभवानुभवनमेकस्मिन् भवे । पर्यायतो वानुभवतः विपाकानुभवक्रमेण वा क्षपयतः । बन्धादिति नारकादिभवेषु चारित्राभावेन प्रभूततरबन्धान्मोक्षाभाव आपद्यते स चानिष्ट इति ॥ १९९॥
जब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके आश्रयस हुआ करता हैं तब उस कर्मका उपक्रम युक्तिसंगत ही है । उदाहरणार्थ - निद्रा दर्शनावरणका उदय द्रव्यमे भैंसके दहो, क्षेत्रमें जांगल काल में वर्षाकाल, भव में एकेन्द्रियादि अवस्था और भाव में औदयिकादि भाव या आलस्य आदिके आश्रयसे हुआ करता है । इसी प्रकार विपरीत रूपसे उसके क्षय आदिको भी जानना चाहिए। इस कारण - सभी कर्मका उपक्रम मानना उचित है || १९७॥
आगे उपक्रम के बिना जो अनिष्टका प्रसंग प्राप्त होता है उसे दिखलाते हैं
यदि अनुभव नसे ही कर्मका क्षय होता है, अन्य प्रकारसे - उपक्रमके बिना - उसका क्षय नहीं माना जाता है तो उस प्रकारसे असंख्यात भवों में उपार्जित नाना गतियोंके कारणभूत उस कर्म फलका एक भवमें भोगना अशक्य होगा || १९८ ||
अशक्य कैसे होगा, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है
कारण यह कि एक भवमें अनेक भावोंका अनुभव करना सम्भव नहीं है । अथवा पर्यायसे—विपाकके क्रमसे— कर्मका यदि अनुभव किया जाये तो बन्धका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होता है, तब वैसी स्थिति में मोक्षका अभाव हो जायेगा, जो इष्ट नही है ।
विवेचन - जैसा कि वादीको अभीष्ट है तदनुसार अनुभाग के क्रमसे फलके भोग लेनेपर ही कर्म क्षपको प्राप्त होता है, उपक्रमसे वह क्षीण नहीं होता; ऐसा माननेपर यह एक आपत्ति उपस्थित होती है कि असंख्यात भवों में जिस कर्मको उपार्जित किया गया है वह उन अनेक गतियों का कारण होगा, जिनका उपक्रमके बिना एक भवमें अनुभव करना असम्भव है । इसपर यदि यह कहा जाये कि विपाकके क्रमसे अनुभव करते हुए हो उसका क्षय सम्भव है तो यह
१. अमुपक्रमणमतो । २. अ खविज्जइ कम्ममन्नहाणुमयं ।