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श्रावकप्रज्ञप्तिः विरतिः किनिमित्ता भे भवतां विरतिवादिनामिति । एष पूर्वपक्षः॥१७९॥ अत्रोत्तरमाह
निच्चाणिच्चो जीवो भिन्नाभिन्नो ह तह सरीराओ ।
तस्स वहसंभवाओ तव्विरई कहमविसया उ ॥१८०॥ एकान्तनित्यत्वादिभेदप्रतिषेधेन नित्यानित्यो जीवो द्रव्य-पर्यायरूपत्वात् । भिन्नाभिन्नश्च तथा शरीरात, तथोपलब्धः अन्यथा दृष्टेष्टविरोधात् । तस्य वधसंभवाद्धेतोस्तद्विरतिर्वधविरतिः। कथमविषया ? नैवेत्यर्थः ॥१८०॥
नित्यानित्यत्वव्यवस्थापनायाह
पुण्य और पापका भी सद्भाव न रहेगा। तब वैसी अवस्थामें उस वधकी विरतिका आपके यहांवधकी विरतिको अभीष्ट माननेवालोंके यहां--प्रयोजन ही क्या रहेगा ? प्रयोजनके बिना वह निरर्थक ही सिद्ध होती है। इस प्रकार वादीने इन १७६-७९ गाथाओंमें अपने पक्षको स्थापित किया है ॥१७९॥
आगे वादीके उपर्युक्त अभिमतका निराकरण करते हुए वधकी सम्भावना प्रकट को जाती है
वह जीव कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य भी है। इसी प्रकार वह शरीरसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न भी है। इस प्रकारसे उसका वध सम्भव है। अतएव उसके वधकी विरतिको अविषय कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता।
विवेचन-वादीने जीव नित्य है या अनित्य इन दो विकल्पोंमें वधको असम्भावना प्रगट की थी। इसी प्रकार वह शरीरसे भिन्न है या अभिन्न इन दो विकल्पोंको उठाकर उनमें भी उस वधको असम्भवताको प्रगट किया था। यहां उसके उत्तरमें यह कहा गया है कि जीव न तो सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य भी है, किन्तु वह द्रव्य दृष्टि से जहाँ नित्य है वहीं वह पर्याय दृष्टिसे अनित्य भी है । अभिप्राय यह है कि जो स्वाभाविक चेतना गुण ( ज्ञान-दर्शन ) है उसका कभी किसी भी पर्यायमें जीवके अवस्थित रहनेपर विनाश सम्भव नहीं है। इस अपेक्षासे जोव नित्य है । साथ ही 'अमुककी मृत्यु हो गयो तथा अमुकके पुत्रका जन्म हुआ है' इत्यादि पर्यायकी प्रधानतासे चूंकि लोकमें व्यवहार देखा जाता है, अतः पर्यायको विवक्षासे वह अनित्य भी है। इस प्रकार जीवके कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य मानने में कोई विरोध नहीं है। इसी प्रकार जीवको संसारमें सदा शरीरके आश्रित देखा जाता है तथा शरीरके आश्रयसे किये जानेवाले शुभ-अशुभ कामोंसे वह पुण्य-पापको उपार्जित करता है व यथासमय उसके फलको भी भोगता है, इस अपेक्षा उसे कथंचित् शरीरसे अभिन्न माना गया है। साथ ही जीव जहाँ स्वभावतः चेतन व अमूर्तिक है वहीं वह शरीर जड़ ( चेतनासे रहित ) व मूर्तिक है, इस प्रकार स्वरूप-भेदके कारण उन दोनों में कथंचित् भेद भी है । इससे वादीके द्वारा उपर्युक्त एकान्त पक्षोंमें दिये गये दोषोंके सम्भव न होनेसे वह वध जब सम्भव है तब उसकी विरतिको निविषय नहीं कहा जा सकता है ॥१८०॥
आगे इस नित्यता व अनित्यताको हो स्पष्ट किया जाता है
१. भ भवाउ तिन्विरइ ।