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वनिवृत्तिनिरर्थकत्ववादिनामभिमतनिरासः अधुनान्यद्वादस्थानकमाह
अन्ने आगंतुगदोससंभवा बिति वहनिवित्तीओ ।
दोण्ह वि जणाण पावं 'समयंमि अदिट्ठपरमत्था ॥१६४॥ अन्ये वादिनः आगन्तुकदोषसंभवात्कारणात् । ब्रुवते। किम् ? वनिवृत्तेः सकाशाद्वयोरपि जनयोः प्रत्याख्यात-प्रत्याख्यापयित्रोः । पापं समये आगमे । अदृष्टपरमार्था अनुपलब्ध. भावार्था इति ॥१६४॥ आगन्तुकदोषसंभवमाह
सव्ववहसमत्थेणं पडिवनाणुव्वएण सिंहाई । __ण घाईओ त्ति तेणं तु घाइतो जुगप्पहाणो उ ॥१६५॥
सर्ववधसमर्थेन सिंहादिक्रूरसत्त्वव्यापादनक्षमेण । प्रतिपन्नाणुव्रतेन सता। सिंहादिः सिंहः शरभो वा । न घातित इति । तेन तु सिंहादिना। घातितो युगप्रधानोऽनुयोगधर एक एवाचार्यः। संभवत्येतदिति ॥१६५॥
तत्तो तित्थुच्छेओ धणियमणत्थो पभूयसत्ताणं । ता कह न होइ दोसो तेसिमिह निवित्तिवादीणं ॥१६६॥
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अब इस प्रकरणको समाह कर आगे अन्य किन्हीं वादियोंके अभिमतको दिखलाते हुए उसका निराकरण किया जाता है
आगममें परमार्थको न देखनेवाले-परमागमके रहस्यको न समझनेवाले अन्य कितने ही वादी वधको निवृत्तिसे होनेवाले आगन्तुक-भविष्यमें आनेवाले-दोषोंकी सम्भावनासे प्रत्याख्यान करनेवाले और उसे करानेवाले इन दोनों ही जनोंके पाप बतलाते हैं ॥१६॥
उक्त आगन्तुक दोषोंको स्पष्ट करते हुए आगे अहिंसाणुव्रतके ग्रहणसे क्या अनर्थ हो सकता है, इसे दिखलाते हैं
समस्त दुष्ट प्राणियोंके वधमें समर्थ किसी श्रावकने अणुव्रतको स्वीकार कर लेनेके कारण सिंह आदि हिंस्र प्राणीका घात नहीं किया। उधर उस सिंहने किसी युगप्रधान-अनुयोगके धारक परम हितैषी साधु-का घात कर डाला।
विवेचन-अभिप्राय यह है कि श्रावक यद्यपि सिंह आदि किसी भी दुष्ट प्राणीका घात कर सकता था, पर अणुव्रतमें प्राणवधनिवृत्तिको स्वीकार कर लेनेसे वह उक्त सिंह आदिका वध नहीं करता है । उधर वह सिंह आदि जीवित रहकर किसी लोकोपकारक साधुका भक्षण कर लेता है। इस प्रकार उक्त साधसे जो बहतसे भव्य जीवोंका उपकार होनेवाला था उससे वे वंचित हो जाते हैं। इसलिए वादोके अभिमतानुसार प्राणवधको निवृत्ति कराना उचित नहीं है ।।१६५॥
युगप्रधानके घातसे क्या अनर्थ होनेवाला है, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है
उससे-युगप्रधानके घातसे-बहुतसे आत्महितैषी जीवोंका अतिशय अनर्थ करनेवाला तीर्थका-धर्मप्रवर्तनका-विनाश होनेवाला है। इससे उन निवृत्तिवादियोंके लिए दोष कैसे नहीं होता है ?
१..भ जणाण भावं । २. अ णो घाइउत्ति।
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