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सामान्येन प्राणवधविरतो शंका-समाधानम् एतदेव भावयति
वहमाणो ते नियमा करेइ वहपुन्नमंतरायं से ।
ता कह णु तस्स पुन्नं तेसिं ख्वणं व हेऊओ ॥१४३॥ घ्नन् व्यापादयंस्तान् दुःखितसत्त्वान् । नियमादवश्यमेव करोति निर्वर्तयति असौ व्यापादकः। वधपुण्यान्तरायममीषां दु:खितसत्त्वानाम, जीवन्तो हि तेऽन्यदुःखितवधेन पुण्यं कुर्वन्ति । व्यापादने च'तेषां अन्यवधाभावात्पुण्यान्तरायम् । यस्मादेवं ततस्मात्कथं नु तस्य व्यापादकस्य पुण्यं, नैवेत्यर्थः। कुतः ? अहेतुकत्वादिति योगः। न ह्यन्यपुण्यान्तरायकरणं पुण्यहेतुरिति सिद्ध एव हेतुः। दृष्टान्तमाह-तेषां क्षपणवत् तेषां दुःखितसत्वानां व्यापाद्यमानानां कर्मक्षपणवदिति । करते हुए कहा जाता है कि उसके वह पुण्यबन्ध भी सम्भव नहीं है, क्योंकि इस प्रकारसे वह दुखी जीवोंका वध करके उनके पुण्यबन्ध में अन्तराय करता है ॥१४२।।
वह कैसे अन्तराय करता है, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है
कारण इसका यह है कि वह उनका वध करता हुआ उनके अन्य जीवोंके वधसे होनेवाले पुण्यके बन्धमें अन्तराय करता है। और तब वैसी स्थिति में-दूसरोंके पुण्यबन्धमें स्वयं अन्तराय बन जानेपर-उस वधकके पुण्यका बन्ध कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है। जैसे उनके कर्मक्षयमें-जो दूसरोंके कर्मक्षयमें स्वयं अन्तराय करता है उसके कर्मका क्षय भी जिस प्रकार असम्भव है। इस प्रकार वादीने जिसे पुण्यबन्धका हेतु माना है वह वस्तुतः अहेतु है-उसका हेतु नहीं है ।।१४३।।
विवेचन-संसारमोचकोंके पूर्वोक्त मतका निराकरण करते हुए यहां उनसे पूछा गया है कि तुम जो दुखी जीवोंके कर्म क्षयार्थ उनके वधसे वधकर्ताके कर्मक्षयका लाभ मानते हो वह युक्तिसंगत नहीं है। इसका कारण यह है कि कारणके अभावमें कार्यका अभाव होता है, ऐसा न्याय है। तदनुसार यहां यह विचारणीय है कि उस कर्मका कारण क्या है ? यदि उस कर्मका कारण अज्ञान माना जाता है तब तो उसका क्षय उस अज्ञानके विनष्ट हो जानेपर ही सम्भव है, न कि दुखो जोवोंके उस वधसे; क्योंकि वह उसका प्रतिपक्षभूत नहीं है। जो कर्मका प्रतिपक्षभूत होगा उसीसे उसका विनाश हो सकता है। इसलिए प्राणिवधको कर्मक्षयका कारण मानना न्याय-संगत नहीं है । इसपर यदि वादो यह कहे कि कर्मका कारण दुखो जोवोंके वधका न करना ही है, तो ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि वैसा माननेपर मुक्त जीवोंके कमंबन्धका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होगा। इसका कारण यह है कि तुम ( संसारमोचक ) जिस अवधक्रियाको कर्मबन्धका कारण मानते हो उससे वे मुक्त जीव सहित हैं-उनके द्वारा कभी किसी जीवका वध सम्भव नहीं है। फिर जब इस प्रकारसे मुक्त जीवोंके भी कर्मबन्ध होने लगा तब उस मुक्तिका प्रयोजन हो क्या रहा? वह निरर्थक सिद्ध होती है। इसपर वादो यदि यह कहता है कि दुखी जीवोंके वधसे वधकर्ताके कर्मका क्षय तो नहीं होता है, किन्तु उससे उसके पुण्यका बन्ध होता है, तो उसको यह मान्यता भी युक्तिके विरुद्ध है। इसका कारण यह है कि वादी जब यह स्वीकार करता है कि दुखी जीवोंके वधसे वधकर्ताके पुण्यका बन्ध होता है तब वैसी स्थितिमें जिन जीवोंका वह वध करता है वे भी यदि जीवित रहते तो अन्य जीवोंका वध
१. अ सत्त्वानां जीवानां ते अन्य । २. अ तेषामन्यभावा पुण्यांतरायां । ३. अ 'तत्तस्मात क' इत्यतोऽग्रे 'भीखां दुःखितसत्त्वानां' इत्यादि-पुण्यांतरायं' पर्यन्तः पूर्वलिखितसंदर्भः पुनः पुनः प्रतिलिखितोऽस्ति ।