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प्रथमाणुव्रतस्वरूपम् कथमटन्तीत्यत्राह-शारीरमानसानां दुःखानां पारमलभमानाः। तत्र शारीराणि ज्वरकुष्ठादीनि, मानसानीष्टवियोगादीनि ॥१०३॥' उपसंहरन्नाह
तम्हा निच्चसईए बहुमाणेणं च अहिगयगुणमि ।
पडिवक्खदुगंच्छाए परिणइ आलोयणेणं च ॥१०४॥ यस्मादेवं तस्मानित्यस्मृत्या सदा अविस्मरणेन । बहुमानेन च भावप्रतिबन्धेन च। अधिकृतगुणे सम्यक्त्वादौ । तथा प्रतिपक्षजुगुप्सया मिथ्यात्वाद्युद्वेगेन । परिणत्यालोचनेन च तेषामेव मिथ्यात्वादीनां दारुणफला एते इति विपाकालोचनेन चेति ॥१०४॥
तीत्थंकरभत्तीए सुसाहुजणपज्जुवासणाएं य ।
उत्तरगुणसद्धाए अपमाओ होइ कायव्वो ॥१०॥ तथा तीर्थकरभवत्या परमगुरुविनयेन । सुसाधुजनपर्युपासनया च भावसाधुसेवनया। तथोत्तरगुणश्रद्धया च सम्यक्त्वे सत्यणुव्रताभिलाषेण, तेषु सत्सु महावताभिलाषेणेति भावः। एवमेतेन प्रकारेणाप्रमादो भवति कर्तव्य एवमप्रमादवानियमवेदनीयस्यापि कर्मणोऽपनयति शक्तिमित्येष शुद्धस्य जीववीर्यस्य करणे उपाय इति ॥१०५॥
भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं । इसे कर्मकी ही बलवत्ता समझना चाहिए। इस प्रकार कहीं जीवकी बलवत्ता और कहीं कर्मकी बलवत्ताका विचार करनेपर उपयुक्त शंकाका समाधान हो जाता है ।।१०३।।
अब आगेको दो गाथाओं द्वारा इसका उपसंहार किया जाता है
इसीलिए-उस संसारपरिभ्रमणसे छुटकारा पानेके लिए-अधिकारप्राप्त उन सम्यक्त्व आदि गुणोंके विषयमें सदा स्मरण रखने, उनके प्रति आदरका भाव रखने, उनके प्रतिपक्षभूत मिथ्यात्व आदिकी ओरसे उद्विग्न रहने और उनके (मिथ्यात्व आदिके) परिणाम-दुःखोत्पादकताका विचार करनेसे प्रमादको दूर करना चाहिए ॥१०४।। इसके अतिरिक्त
तीर्थकरकी भक्ति-कल्याणकारो जिनेन्द्र व सद्गुरु आदिके गुणोंमें अनुराग, उत्तम साधुजनोंकी उपासना ओर उत्तर गुणोंकी श्रद्धासे भो प्रमादको दूर करना चाहिए।
विवेचन-यह पूर्व में (१००) कहा जा चुका है कि जीववीर्यसे-जीवको आत्मशक्तिके द्वारा-नियमसे अनुभवके योग्य भी कर्मके विपाकको क्षोण किया जा सकता है। वह आत्मशक्ति किस प्रकारसे प्राप्त की जा सकती है, इसे स्पष्ट करते हुए यहां कहा गया है कि मोक्षके उपायभूत सम्यक्त्व आदि गणोंका स्मरण उनके प्रति विनयका व्यवहार. मिथ्यात्व आदि संसारपरिभ्रमणके कारणोंसे उद्वेग, उनके दुष्परिणामका विचार, वीतराग जिनेन्द्र आदि परमगुरुओंके गुणोंमें अनुराग, उत्तम साधुजनोंका सेवा, तथा सम्यक्त्वके प्रादुर्भूत हो जानेपर अणुव्रतोंकी अभिलाषा व उनके होनेपर महाव्रतोंकी अभिलाषा; इत्यादि ये ऐसे उपाय हैं जिनके आश्रयसे प्रमादको दूर कर उस आत्मशक्तिको प्रकट किया जा सकता है ।।१०५।।
१.अ ज्वरकुष्ठादीनिति उपसंहरन्नाह। २. अ भावप्रबंधेन। ३. अ सुसाहगुणपज्जवासणाए। ४. अ सत्सु व्रताभि । ५. भ एवमनेन ।