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श्रावकप्रज्ञप्तिः
अन्ने यि अइयारा आइसण सूइया इत्थ ।
साइंमिअणुववृणमथिरीकरणाइया ते उ ॥ ९४ ॥
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[ ९४ =
अन्ये ऽपि चातिचारा आदिशब्देन सूचिता अत्र - अत्रेति सम्यक्त्वाधिकारे 'सम्मत्तस्सइयारा' इत्यादिद्वारगाथायामादिशब्देनोल्लिङ्गिता इत्यर्थः । समानधार्मिकानुपबृंहणास्थिरीकरणादयस्ते तु - अनुस्वारो ऽलाक्षणिकः, समानधामिको हि सम्यग्दृष्टेः साधुः साध्वी श्रावकः श्राविका च । एतेषां कुशलमार्गप्रवृत्तानामुपबृंहणा कर्तव्या । धन्यस्त्वं पुण्यभाक्त्वं कर्तव्यमेतद्यद्मवतार - धमिति तद्भाव उपबृंहितव्यः । अनुपबृंहणे ऽतिचारः । एवं सद्धर्मानुष्ठाने विषीदन् धर्म एव स्थिरीकर्तव्यः । अकरणे प्रतिचारः । आदिशब्दात्समानधार्मिक वात्सल्य - तोर्थप्रभावनापरिग्रहः । समानधार्मिकस्य ह्यापद्गतोद्धरणादिना वात्सल्यं कर्तव्यं । तदकरणे ऽतिचारः । एवं स्वशक्त्या धर्मकथादिभिः प्रवचने प्रभावना कार्या । तदकरणे ऽतिचार इति ॥९४॥
आगे पूर्व गाथा ८६ में उपयुक्त 'आदि' शब्दसे सूचित कुछ अन्य अतिचारोंका भी निर्देश किया जाता है
'संथवमाई य नायव्वा' यहाँ ( ८६ ) उपयुक्त आदि शब्दके द्वारा अन्य भी अतिचारोंकी सूचना की गयी है । वे साधर्मिक अनुपबृंहण और साधर्मिक अनुपगूहन आदि हैं ।
विवेचन --- पूर्व गा. ८६ में शंका आदि पाँच अतिचारोंका निर्देश करके 'आदि' शब्द के द्वारा जिन अन्य अतिचारों की सूचना की गयी है वे साधर्मिक अनुपबृंहण, साधर्मिक अस्थितिकरण, साधर्मिक-अवात्सल्य और अतोर्थप्रभावना आदि हैं । साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ये समान धर्मका आचरण करनेके कारण सम्यग्दृष्टि के लिए सधार्मिक हैं । सम्यग्दृष्टिको श्रेयस्कर मार्ग में प्रवृत्त इन सबकी 'आप धन्य व विशेष पुण्यशाली हैं, आपने जो यह सदनुष्ठान आरम्भ किया है वह स्तुत्य है, उसे पूरा करना ही चाहिए' इत्यादि रूपसे प्रशंसा करके उनके उत्साहको बढ़ाना चाहिए। यह सम्यक्त्व का उपबृंहण नामका एक गुण ( अंग ) है, जिसके आश्रयसे वह पुष्ट होता है | इसके न करनेपर उस सम्यक्त्वको मलिन करनेवाला उसका साधर्मिक अनुपबृंहण नामक अतिचार होता है । जो साधर्मिक समीचीन धर्मके आचरणसे खिन्न है व उसमें प्रमाद करता है उसे सदुपदेश आदिके द्वारा उसमें दृढ़ करना चाहिए। यह सम्यक्त्वका स्थितिकरण नामका एक गुण है, जिससे वह पुष्ट होता है। इसके विपरीत यदि सम्यग्दृष्टि धर्मसे च्युत होते हुए स्वयं अपनेको या अन्यको उसमें स्थिर नहीं करता है तो वह उसके सम्यक्त्वको कलुषित करनेवाला साधर्मिक अस्थिरीकरण नामका एक अतिचार होता है । सम्यग्दृष्टिका यह भी कर्तव्य है कि जिस प्रकार गाय अपने बछड़े से स्वाभाविक प्रेम किया करती है उसी प्रकार वह अपने साधर्मिक जनोंसे निश्छल अनुराग करता हुआ उनकी आपत्ति आदिको यथासम्भव दूर करे। यह सम्यक्त्वका पोषक उसका एक वात्सल्य नामका गुण है । यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसका सम्यक्त्व साधर्मिक- अवात्सल्य नामक अतिचारसे दूषित होता है । सम्यग्दृष्टिके द्वारा जो यथाशक्ति धर्मंकथा आदिके द्वारा तीर्थको - जैन शासनको - प्रसिद्ध किया प्रभावना नामका एक गुण है। उससे सम्यग्दर्शन पुष्ट होता है । यदि सम्यग्दृष्टि ऐसा नहीं करता है तो उसके सम्यक्त्वको दूषित करनेवाला तार्थ प्रभावना नामका अतिचार होता है ||१४||
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जाता है, यह सम्यक्त्वका तीर्थं
१. अ य अइणया आईसद्देण । २. अ ह्याद्धरणादिना ।