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सम्यक्त्वा तिचारप्ररूपणा
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सो' य भमंतो तं विज्जासाहगं पेच्छइ । तेण पुच्छिओ सो भइ विज्जं साहेमि । चोरो भणइ केण ते दिण्णो । सो भणंइ सावगेणं । चोरेण भणियं इमं दव्वं गिण्हाहि, विज्जं देहि । सो सड्ढो विचिकित्स सिझेज्जा न व इत्ति । तेणं दिन्ना । चोरो चितेइ सावगो को डियावि पावं नेच्छइ, सच्चमेयं । सो साहिउमारद्धो,' सिद्धा । इयरो सलोद्दो ( सलुत्तो ) गहिउँ । तेण आगासगएण लोगो भेसिओ, ताहे सो मुक्को । दोवि सावगा जायति ॥
विद्वज्जुगुप्सायां श्रावक सुताउदाहरणे एगो सेट्ठी पढवंते वल्लइ ( तल्लइ ) । तस्तै धूया - विवाहे कहवि साहुणो आगया । सा पिउणा भणिया-पुत्तिए, पडिलाभेहि साहुणो । सा is साहिया पडिलाइ । साहूण जल्लागंधो तीए आघातो । सा चितेइ - अहो अणवज्जो भट्टारगेहि धम्मो सिओ, जइ पुण फासुएण पाणीएण व्हाएज्जा को दोसो होज्जा । सा तस्स
स अणालो अडिक्वता कालं काऊणं रायगिहे गणियापाढे ' समुत्पन्ना । गब्भगया
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प्रकार सींका बांधने आदिको समस्त क्रियाको करके वह यह निश्चय नहीं कर सका कि विद्या . सिद्ध होगी भी या नहीं। इस बीच एक चोर, जिसका पीछा नगरके आरक्षक ( कोतवाल आदि ) कर रहें थे, भागता हुआ वहाँ आया । नगरारक्षकोंने श्मशानको घेरकर वहां स्थित होते हुए विचार किया कि इसे सवेरे गिरफ्तार कर लेंगे। उधर चोरने वहां घूमते हुए उस श्रावकको अस्थिरचित्त देखकर उससे पूछा कि यह क्या कर रहे हो। इसपर उत्तरमें श्रावकने कहा कि मैं विद्याको सिद्ध कर रहा हूँ । तब चोरके पुनः यह पूछनेपर कि इसे तुम्हें किसने दिया है श्रावकने कहा कि इसे मेरे एक मित्र श्रावकने दिया है । इसपर चोर बोला कि इस द्रव्य ( हार) को ले लो और विद्या मुझे दे दो । तब 'वह मुझे सिद्ध होगो या नहीं' इस प्रकार बुद्धिभ्रमसे युक्त श्रावक उसे वह विद्या दे दी । चोरने विचार किया कि श्रावक क्रीड़ामें भी पापकी इच्छा नहीं करता है, यह सत्य है । इस प्रकार स्थिरचित्त होकर चोरने उसे सिद्ध करना प्रारम्भ कर दिया । वह उसे सिद्ध भी हो गयी । उधर प्रातःकालके हो जानेपर नगरारक्षकोंने चोरके द्वारा दिये गये उस द्रव्यके साथ श्रावकको चोर समझकर गिरफ्तार कर लिया, तब उस विद्याके प्रभावसे आकाशमें गये हुए उस चोरने नगरारक्षकों को डराया धमकाया । इस प्रकार उससे भयभीत होकर उन्होंने उसे छोड़ दिया । तब दोनों ही श्रावक हो गये । इस प्रकार विचिकित्सा के कारण श्रावक जिस विद्यासिद्ध नहीं कर सका वह उस चोरको विचिकित्सा के अभाव में अनायास ही सिद्ध हो गयी ।
द्वितीय विकल्पभूत विद्वज्जुगुप्सा के उदाहरण में श्रावकसुताका कथानक इस प्रकार हैएक सेठ प्रत्यन्त ( अनार्यदेश ) में रहता था । उसकी पुत्रीके विवाह के समय कहीं से साधु आये । तब पिता पुत्री से भोजन आदिके द्वारा उनका स्वागत करने के लिए कहा । तदनुसार वह वस्त्राभूषणादिसे सुसज्जित होकर उनके स्वागत के लिए उद्यत हुई। उस समय उसे साधुओं के पसीने मलिन शरीरसे फैलती हुई दुर्गन्ध सुँघने में आयी । तब उसने विचार किया कि भगवान्ने निर्मल धर्मका उपदेश दिया है । यदि ये प्रासुक जलसे स्नान कर लिया करें तो कौनसा दोष होगा। इस प्रकार उसने साधुओं की निन्दा की । तत्पश्चात् वह साधुनिन्दाजनित उस अपराधकी आलोचना व प्रतिक्रमण न करके मरणको प्राप्त होती हुई राजगृह नगर के भीतर एक वेश्याके पेटमें आयो ।
१. अ पमाए घहि सो । २. अ केण इ दिण्णा । ३. मुसो विचिकिच्छइ । ४. अ सोहेउमारद्वा । ५. अ इयरो सलुत्तो गहिओ । ६ अ पन्ते तस्सइ तस्स । ७ अ लोइय पडिक्कंता । ८. भ गणियापोढे |