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६२ श्रावकप्रज्ञप्तिः
[८८मिथ्यात्वमोहनीयोदयतो भवन्तो जीवपरिणामविशेषाः सम्यक्त्वातिचारा उच्यन्ते । न सूक्ष्में क्षिका अत्र कार्येति । अथवा विचिकित्सा विद्वद्जुगुप्सा-विद्वांसः साधवो विदितसंसारस्वभावाः परित्यक्तसर्वसङ्गास्तेषां जुगुप्सा निन्दा । तथाहि-तेऽस्नानात्प्रस्वेदजलक्लिन्नमलिनत्वात् दुर्गन्धवपुषो भवन्ति, तान्निन्दति, को दोषः स्याद्यदि प्राशुकेन वारिणाङ्गप्रक्षालनं कुर्वीरन् भगवन्त इति । इयमपि न कार्या, देहस्यैव परमार्थतोऽशुचित्वादिति ॥८॥
परपाषंडपसंसा सक्काइणमिह वनवाओ उ ।
तेहिं सह परिचओ जो स संथवो होइ नायव्यो ।।८८|| परपाषण्डानां सर्वज्ञप्रणीतपाषण्डव्यतिरिक्तानां प्रशंसेति समासः, प्रशंसनं प्रशंसा स्तुतिरित्यर्थः । तथा चाह-शाक्यादीनामिह वर्णवादस्तु । शाक्या रक्तभिक्षवः आदिशब्दात्परिव्राजकादिपरिग्रहः। वर्णवादः प्रशंसोच्यते-पुण्यभाज एते सुलब्धमेभिर्मानुजं जन्म दयालव एत इत्यादि। तैः परपाषण्डैरनन्तरोदितेः सह परिचयो यः स संस्तवो भवति ज्ञातव्यः, परपाषण्डसंस्तव इत्यर्थः। संस्तव इह संवादजनितः परिचयः संवसन-भोजनालापादिलक्षणः परिगृह्यते, न स्तवरूपः। तथा च लोके प्रतीत एवं संपूर्वः स्तौतिः परिचय इति “असंस्तुतेषु प्रसभं भयेषु" इत्यादौ इति ॥८॥ शंका जहां समस्त व असमस्त पदार्थोंक आश्रित होनेसे द्रव्य और गुणको विषय करती है वहीं यह विचिकित्सा क्रियाको हो विषय करती है, यह उन दोनोंमें भेद समझना चाहिए। वास्तवमें तो मिथ्यात्व मोहनीयके उदयसे होनेवाले ये सब जीवके परिणाम विशेष सम्यक्त्वके अतिचार कहे जाते हैं, अतः उनके विषयमें इतना सूक्ष्म विचार करना योग्य नहीं है। अथवा विचिकित्साको विद्वज्जुगुप्साके रूप में ग्रहण करना चाहिए। विद्वान्से यहाँ अभिप्राय उन साधुओंका है जो संसारके स्वभावको जानकर समस्त परिग्रहका परित्याग कर चुके हैं, उनकी इस प्रकारसे निन्दा करना कि स्नान न करनेके कारण इनका शरीर पसीनेके पानीसे मलिन व दुर्गन्धको फैलानेवाला है, यदि ये प्रासुक जलसे शरीरको धो लिया करें तो क्या दोष होगा, इत्यादि । यह विद्वज्जुगुप्सा भी चूंकि उस सम्यक्त्वको मलिन करनेवाली है अतः उसका भी परित्याग करना उचित है। वास्तवमें तो शरीर स्वभावतः स्वयं अपवित्र है, उसे स्नानादिके द्वारा बाह्यमें हो कुछ स्वच्छ किया जा सकता है, भीतरी भागमें तो वह मल-मूत्रादि अपवित्र पदार्थोंसे परिपूर्ण हो रहनेवाला है ॥८७॥
आगे उस सम्यग्दर्शनके अन्य दो अतिचारोंका स्वरूप कहा जाता है
शाक्य आदिकोंके वर्णवाद ( प्रशंसा ) का नाम परपाषण्डप्रशंसा है। उन्हींके साथ जो परिचय होता है उसे परपाषण्डसंस्तव जानना चाहिए।
विवेचन-पाषण्डका अर्थ पापको खण्डित करनेवाला सदाचरण या संयम होता है। इस प्रकारके संयमसे जो सम्पन्न होते हैं उन्हें यथार्थतः साधु समझना चाहिए। इनसे भिन्न अन्य शाक्य (रक्तभिक्षु) व परिव्राजक आदिको परपाषण्ड कहा गया है। उनको जो प्रशंसा की जाती है कि ये बहुत भाग्यशाली हैं, इन्हें सुन्दर मनुष्यजन्म प्राप्त हुआ है, ये दयालु होते हैं, इसे परपाषण्डप्रशंसा नामक उस सम्यग्दर्शनका चौथा अतिचार जानना चाहिए। इन्हीं परपाषण्डोंके साथ जो एक साथ रहने, भोजन करने व सम्भाषण करने आदिरूप संवादजनित परिचय किया जाता है उसे परपाषण्डसंस्तव कहा जाता है। संस्तवसे यहां उक्त प्रकारके परिचयको ही ग्रहण करना चाहिए, न कि स्तुतिरूप स्तवको। यह उसका पांचवां अतिचार है ।।८८।। १. सवकाईणमिह वन्नवादो उ । २. अ प्रसंसेति प्रसंसा समासः । ३. अ 'एव संपू' इत्यतोऽग्रे 'अधुना शंकादीनामतिचारतामाह' पर्यन्तः पाठस्त्रुटितोऽस्ति ।