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९।४७] नयाँ अध्याय
७९९ नहीं होती पर कभी-कभी उत्तरगुणोंमें विराधना हो जाती है। कषायकुशील निर्ग्रन्थ और स्नातकोंके विराधना नहीं होती।
तीर्थ-सभी तीर्थंकरोंके तीर्थ में ये पुलाक आदि होते हैं।
लिंग-लिंग दो प्रकारका है। द्रव्यलिंग और भावलिंग। भावलिंगकी दृष्टिसे पाँचों निर्ग्रन्थलिंगी होते हैं, द्रव्यलिंगकी दृष्टिसे भाज्य हैं।
लेश्या-पुलाकके उत्तरकी तीन लेश्याएँ होती हैं। वकुश और प्रतिसेवनाकुशीलके छहों लेश्याएँ होती हैं । कषायकुशील और परिहारविशुद्धिवालेके उत्तरकी चार लेश्याएँ होती हैं। सूक्ष्मसाम्पराय और निम्रन्थ स्नातकोंके एक शुक्ललेश्या होती है। अयोगकेवली अलेश्य होते हैं।
उपपाद-पुलाक उत्कृष्ट रूपसे सहस्रार स्वर्गके उत्कृष्ट स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होता है। वकुश और प्रतिसेवनाकुशीलका आरण अच्युत कल्पमें २२ सागरकी उत्कृष्ट स्थितिमें उपपाद होता है। कषायकुशील और निन्थका तेतीस सागरकी स्थितिवाले सर्वार्थसिद्धिमें उपपाद है। सबका जवन्य उपपाद दो सागरको स्थितिवाले सौधर्म कल्पमें होता है । स्नातकका निर्वाण ही होता है।
. स्थान-असंख्यात संयमस्थान कपायनिमित्त होते हैं। पुलाक और कषायशीलके सर्वजघन्य लब्धिस्थान होते हैं। वे आगे असंख्येय स्थानोंको जाते हैं। इसके बाद पुलाक नहीं रहता। कषायकुशील आगे और भी असंख्येय स्थानों को जाता है। कषाय कुशील प्रतिसेवनाकुशील और पकुश एक साथ असंख्येय स्थानोंको जाते हैं। फिर वकुश नहीं रहता। फिर असंख्येय स्थान आगे जाकर प्रतिसेवनाकुशील नहीं रहता। फिर असंख्येय स्थान आगे जाकर कषायकुशील नहीं रहता। इसके आगे अकषाय स्थानोंको निम्रन्थ प्राप्त होता है। वह भी आगे असंख्येय स्थानोंतक जाता है, आगे नहीं। उसके ऊपर एक स्थान जाकर निर्ग्रन्थ स्नातक निर्वाण प्राप्त करता है। इस तरह इनकी संयम लब्धि अनन्तगुणी होती है।
नवाँ अध्याय समाप्त