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________________ ७९४ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९॥३७ असंयतसम्यग्दृष्टि में उदीरणा होती है। प्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ तियंचगति उद्योत और नीचगोत्र इन सात प्रकृतियोंकी संयतासंयत तक उदीरणा होती है आगे नहीं । तियंच आयुकी मरणकालमें चरमावलीको छोड़कर संयतासंयत तक उदीरणा होती है आगे नहीं। निद्रा-निद्रा प्रचला-प्रचला स्त्यांमगृद्धि सातावेदनीय और असातावेदनीयकी प्रमत्तसयततक उंदीरणा होती है, उत्तर-आहारकशरीरवालोंमें चेरमावलीमें उदीरणा नहीं होती। आहारकशरीर और आहारकशरीरअङ्गोपाङ्गका प्रमत्तसंयतमें उदीरणोदय होता है आगे पीछे नहीं। मनुष्यायुकी उदीरणा मरणकालमें चरमावलीको छोड़कर मिश्रगुणस्थानके सिवाय प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। वेदक सम्यक्स्वका उदीरणोदय असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक होता है आगे पीछे नहीं। अर्धनाराच कीलक असंप्राप्तामृपाटिकासंहननका उदी. रणोदय अप्रमत्तसंयत तक होता है आगे पीछे नहीं। हास्य रति अरति शोक भय और जुगुप्सा इन छह प्रकृतियोंका उदीरणोदय अपूर्वकरणके चरम समय तक होता है आगे पीछे नहीं। तीनों वेद और तीन संज्वलनकी उदीरणा अनिवृत्तिबादर साम्पराय तक होती है। उसके छह भागोंमें प्रत्येकमें एक एकका उदीरणाछेद हो जाता है । सूक्ष्मसाम्परायको चरमावलीको छोड़कर शेष दशों गुणस्थानवर्तियों के लोभसंज्वलनकी उदीरणा होतो है। वज्रनाराचसंहनन और नाराचसंहननका उदीरणोदय उपशान्त कषायमें होता है आगे पीछे नहीं। बारहवें गुणस्थानकी एक समय अधिक चरमावलीको छोड़कर क्षीणकपायान्त जीवोंके निद्रा और प्रचलाकी उदीरणा होती है। पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायोंका उदीरणोदय चरमावलीरहित क्षीणकपायान्त जीवोंके होता है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक तैजस कार्मण शरीर छह संस्थान औदारिकशरीरांगोपांग वनवृषभनाराचसंहनन वर्ण गन्ध रस स्पर्श अगुरुलघु उपघात उच्छ्वास प्रशस्त अप्रशस्त विहायोगति त्रस बादर पर्याप्त प्रत्येकशरीर स्थिर अस्थिर शुभ अशुभ सस्वर दास्वर आदेय यशस्कीर्ति निर्माण और उच्चगोत्र इन अड़तीस प्रकृतियोंकी उदीरणा सयोगकेवलीके चरम समयतक होती है । तीर्थकर प्रकृतिकी उदीरणा सयोगकेवलीके ही होती है आगे पीछे नहीं। १०. लोकके स्वभाव संस्थान तथा द्वीप नदी आदिके स्वरूपका विचार संस्थान विचय है। ११-१२. उत्तमक्षमा आदि दस धमासे ओत-प्रोत होनेके कारण यह धर्म्यध्यान कहलाता है। उत्तमक्षमादिभावनावालेके यह होता है। अनित्य आदि अनुप्रेक्षाओंमें जब बार-बार चिन्तनधारा चालू रहती है तब वे ज्ञानरूप हैं पर जब उनमें एकाग्रचिन्तानिरोध होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है तब वे ध्यान कहलाती हैं। १३. तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसम्मत सूत्रपाठमें धर्म्यध्यान अप्रमत्तसंयतके बताया है, पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि धर्म्यध्यान सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है अतः वह असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत और प्रमत्तसंयतके भी होता है। यदि उक्त अवधारण किया जाता है तो इनकी निवृत्ति हो जायगी। ६१४-१५. उपशान्तकषाय और क्षीणकषायमें शुक्लध्यान माना जाता है, उनमें धर्म्यध्यान नहीं होता। दोनों मानना उचित नहीं है। क्योंकि आगममें श्रेणियोंमें शक्ल ध्यान ही बताया है धर्म्यध्यान नहीं। शुक्ले चाये पूर्वविदः ॥३७॥ १-३. पूर्व वित् अर्थात् श्रुतकेवलोके आदिके दो शुक्लध्यान होते हैं। च शब्दसे उनके धर्म्यध्यान भी होता है। धर्म्यध्यान श्रेण्यारोहणके पहिले होता है तथा श्रेण्यारोहणकालमें शुक्लध्यान होता है, यह बात व्याख्यानसे ज्ञात हो जाती है।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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