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________________ प्रक्षितव्यके भेदसे भाव है। कृदन्तसे अभिहित भाव क्या । कर्मसाधन मानकर भी ९।८९] नवा अध्याय र्थक युच प्रत्ययका प्रसंग नहीं है। अनुप्रेक्षा शब्द भावसाधन है। कृदन्तसे अभिहित भाव द्रव्यके समान होता है अतः अनुप्रेक्षितव्यके भेदसे भावभेद होकर बहुवचन निर्देश बन जाता है। कर्मसाधन मानकर भी अनुचिन्तनके साथ सामानाधिकरण्यमें कोई विरोध नहीं है क्योंकि 'अनुचिन्त्यते इत्यनुचिन्तनम्' इस तरह अनुचिन्तन शब्द भी कर्मसाधन है । अनित्यत्व आदि स्वभावोंका अनुचिन्तन अनुप्रेक्षा है। लिंग और वचनभेद तो 'गावो धनम्' की तरह बन जाता है, क्योंकि उपात्तलिंग और वचनवाले शब्दोंके परस्पर सम्बन्धका नियम है। १७. अनुप्रेक्षाओंकी भावना करनेवाला उत्तम क्षमा आदि धाँका परिपालन करता है और परीषहोंके जीतनेके लिए उत्साहित होता है अतः दोनोंके बीच में अनुप्रक्षाका कथन किया है। मार्गाच्यवननिर्जराथं परिसोडव्याः परीषहाः ॥ ८॥ ३१-३. नाम छोटेसे छोटा रखा जाता है। यहाँ 'परीषह' इतना बड़ा नाम रखनेका तात्पर्य है कि यह सार्थक नाम है-जो सहे जाँय वे परीषह । मार्ग अर्थात् कर्मागमद्वारको रोकनेवाले संवरके जैनेन्द्र प्रोक्त मार्गसे च्युत न हो जाँय इसके पहिलेसे ही परीषहों पर विजय प्राप्त की जाती है। परीषहजयी संवरमार्गके द्वारा क्षपकश्रेणी पर चढ़नेकी सामर्थ्य को प्राप्त कर, उत्तरोत्तर उत्साहको सकल कषायोंकी प्रध्वंस शक्तिसे कर्मोकी जड़को काटकर, जिनके पंखोंपर जमी हुई धूली झड़ गई है उन उन्मुक्त पक्षियोंकी तरह पंखोंको फडफडाकर ऊपर उठ जाते हैं । इस तरह संवरमार्ग और निर्जराकी सिद्धिके लिए परीषहोंको सहना चाहिये । 'परिसोढव्याः' में 'सोढ' इस सूत्रसे षत्वका निषेध हो जाता है। परीषहोंका वर्णनक्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषधाशय्याक्रोशवध. .. याचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥९॥ १. बाह्य और आभ्यन्तर द्रव्योंके परिणमनरूप शारीर और मानस पीड़ा देनेवाली क्षुधा आदि बाईस परीषहोंको जीतनेके लिए विद्वान संयतको प्रयत्न करना चाहिये। २. जिसने सभी संस्कार छोड़ दिये हैं, शरीरमात्र ही जिनका उपकरण है, तप और संयमके लोपका परिहार करनेमें उत्सुक कृत, कारित अनुमत संकल्पित उद्दिष्ट संक्लिष्ट क्रमागत प्रत्यात्त पूर्वकर्म और पश्चात्कर्म इन दस प्रकारके एषणादोषोंको टालने वाले और देश काल प्रान्त आदिकी व्यवस्थाको समझनेवाले संयतके भी अनशन मार्गश्रम रोग तप स्वाध्यायश्रम कालातिक्रम अवमोदर्य और असातावेदनीय आदि कारणों से क्षुधा उत्पन्न होती है । वे उसके प्रतीकारको भोजनकालके सिवाय या संयम विरोधी द्रव्योंसे न तो स्वयं करते हैं न अन्यसे कराते हैं और न मनमें ही यह विचार करते हैं कि-'यह वेदना दुस्तर है, बहुत समय है, बड़े बड़े दिन होते हैं' आदि। वे ज्ञानी साधु किसी भी प्रकारके विषादको प्राप्त नहीं करके शरीरमें हड्डी नसा और चमड़ामात्र रह जाने पर भी आवश्यक क्रियाओंको बराबर नियमसे करते हैं और कारागार बन्धनमें पड़े हुए भूखसे छटपटाते हुए मनुष्य और पिंजरे में बन्द पशुपक्षियोंकी भयानक क्षुधाका विचार करके संयम कुम्भमें भरे गये धैर्यरूपी जलसे क्षुधारूपी अग्निका प्रशमन करते हैं । वे उसकी भयंकर पीडाको कुछ नहीं समझते । यह क्षुधा परीषह जय है। ६३. स्नान अवगाहन परिषेक आदिके त्यागी, पक्षियोंकी तरह जिनका आसन या स्थान अनियत है, अत्यन्त खारा चिकनारूखा आदि विरुद्ध आहार गरमी पित्तज्वर और अनशन आदि कारणोंसे लगनेवाली शरीर और इन्द्रियोंको मथनेवाली भयंकर प्यासको भी कुछ न गिनकर उसके प्रतीकारकी इच्छा न रखने वाले, जेठकी दुपहरी सूर्यका तीव्र ताप, और जंगलमें जला
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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