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________________ ९।७] नवाँ अध्याय ७७३ होनेपर तदाश्रित प्राणियोंका विनाश अवश्यम्भावी है और छेद बन्द कर देनेपर निरुपद्रव इष्टदेशतक पहुँच जाते हैं उसी तरह कर्मागमनद्वारोंका संवरण होनेपर कोई श्रेयःप्रतिबन्ध नहीं हो सकता। इस तरह संवरके गुणोंका अनुचिन्तन संवरानुप्रेक्षा है। इन विचारोंसे मनुष्य संवरकी ओर प्रयत्नशील होता है। निर्जरा वेदनाके विपाकको कहते हैं । निर्जरा दो प्रकारकी है अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादिगतियों में कर्मफलविपाकसे होनेवाली अबद्धिपर्वा निर्जरा होती है जिससे आगे अकुशलका ही बन्ध होता है । परीषहजय और तप आदिसे कुशलमूला निर्जरा होती है जो शुभका बन्ध करती है या बन्ध बिलकुल ही नहीं करती। इस तरह निर्जराके गुण-दोषोंकी भावना करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इससे चित्त निर्जराके लिए उद्युक्त होता है। ६८. अनन्त अलोकाकाशके मध्यमें पुरुषाकार लोक है, उसके संस्थान आदिका वर्णन किया जा चुका है । उसका स्वरूपचिन्तन लोकानुप्रेक्षा है। इससे तत्त्वज्ञानादिकी शुद्धि होती है चित्तसे रागद्वेष हटते हैं। ९. त्रसत्व आदिका पाना अत्यन्त दुर्लभ है और बोधिलाभ अत्यन्त दुर्लभ है यह विचार बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। "एक निगोद शरीरमें द्रव्यप्रमाणसे जीवोंकी संख्या, सिद्धोंकी संख्यासे और समस्त अतीतकालके समयोंकी संख्यासे अनन्तगुणी है।" इस आगमप्रमाणसे अनन्त निगोदिया हैं। इन अनन्त स्थावरोंमें त्रसपर्यायका पाना उसी तरह दुर्लभ है जिस प्रकार अनन्त रेतके समुद्र में गिरी हुई हीराकी कनीका फिर मिल जाना । त्रसों में भी विकलेन्द्रिय बहुत होते हैं अतः पश्चेन्द्रियत्वका पाना उसी तरह दुर्लभ है जिस प्रकार गुणोंमें कृतज्ञताका मिलना। पञ्चेन्द्रियोंमें भी पशु-मृग-पक्षी सरीसृप आदि अनेक प्रकारकी पर्यायोंमें मनुष्य पर्यायका पाना चौराहेपर रखे हुए रत्नकी तरह दुर्लभ है। मनुष्यपर्याय नष्ट करके उसे पुनः पाना जले हुए पेड़में अंकुर निकलनेके समान कठिन है । मनुष्यपर्याय मिल भी जाय तो भी हिताहितविचारसे रहित असंख्य मानव समुद्र में सुदेशकी प्राप्ति पाषाणोंमें मणिकी तरह कठिन है। सुदेश मिलनेपर भी सुकुलकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। सुकुलजन्मसे शील विनय और आचारकी परम्परा मिल जाती है। उसमें भी दीर्घायु इन्द्रियबल रूप आरोग्य आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। इन सबके मिलनेपर भी सद्धर्मकी प्राप्ति यदि नहीं हुई तो नेत्ररहित मुखकी तरह वह व्यर्थ ही है । उस सुदुर्लभ धर्मको पाकर भी विषयसुखमें समय बिताना भस्मके लिए चन्दन जलानेके समान है। विषयविरक्त होनेपर भी तपोभावना धर्मप्रभावना सुखमरण आदि रूप समाधि अत्यन्त कठिन है । इस समाधिसे ही बोधिलाभ सफल कहा जा सकता है। इस प्रकार चिन्तन करना बोधिदलभानुप्रेक्षा है इससे बोधिको प्राप्त करके जीव अप्रमादी बना रहकर स्वकल्याणमें लगा रहता है। १०-११. जीवस्थान और गुणस्थानका गत्यादि मार्गणाओंमें अन्वेषण करना रूप धर्म जिनशासनमें अच्छी तरह कहा गया है यह भावना धर्मस्वाख्यातत्व है। गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयमदर्शन लेश्या भव्य सम्यक्त्व संज्ञा और आहार ये चौदह मार्गणाएँ हैं । नरकादि गतियाँ कर्मोदयकृत हैं तथा मोक्षगति क्षायिकी है। इन्द्र अर्थात् आत्माका चिह्न या इन्द्र अर्थात् नामकर्मसे सृष्ट इन्द्रियाँ हैं । द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके भेदसे इन्द्रियाँ दो प्रकारकी हैं । स्पर्शना दि इन्द्रियाँ और एकेन्द्रियादि भेद कर्मकृत हैं, आत्माकी अतीन्द्रियता मायिक है । आत्माकी प्रवृत्तिसे उपचित पुद्गलपिण्ड काय है। कायसम्बन्धी जीव छह प्रकारके हैंपृथिवीकायिक जलकायिक तेजस्कायिक वायुकायिक वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । त्रस और स्थावर नामकर्मके उदयसे ये होते हैं। नामकर्मका अत्यन्त उच्छेद कर देनेसे सिद्ध अकाय हैं। वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे प्राप्त वीर्यलब्धि योगका प्रयोजक होती है । उस सामर्थ्यवाले आत्मा
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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