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नयाँ अध्याय
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१५. संयम दो प्रकार का होता है-एक उपेक्षा संयम और दूसरा अपहृत संयम । देश और कालके विधानको समझने वाले स्वाभाविक रूपसे शरीर से विरक्त और तीन गुप्तियों के धारक व्यक्तिके राग और द्वेष रूप चित्तवृत्तिका न होना उपेक्षा संयम है । अपहृत संयम उत्कृष्ट मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारका है । प्रासुक वसति और आहार मात्र हैं बाह्य साधन जिनके तथा स्वाधीन हैं ज्ञान और चारित्र रूप करण जिनके ऐसे साधुका बाह्य जन्तुओंके आनेपर उनसे अपनेको बचाकर संयम पालना उत्कृष्ट अपहृत संयम है। मृदु उपकरणसे जन्तुओंको बुहार देनेवालेके मध्यम और अन्य उपकरणोंकी इच्छा रखने वालेके जघन्य अपहृत संयम होता है।
१६. इस अपहृत संयमके प्रतिपादनके लिए ही इन आठ शुद्धियोंका उपदेश दिया गया है - भावशुद्धि कायशुद्धि विनयशुद्धि ईर्यापथशुद्धि भिक्षाशुद्धि प्रतिष्ठापनशुद्धि शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि । कर्म के क्षयोपशमसे जन्य, मोक्षमार्ग की रुचिसे जिसमें विशुद्धि प्राप्त हुई है और जो रागादि उपद्रवों से रहित है वह भावशुद्धि है । इसके होनेसे आचार उसी तरह चमक उठता है जैसे कि स्वच्छ दीवालपर आलेखित चित्र । यह समस्त आवरण और आभरणों से रहित, शरीर संस्कार से शून्य, यथाजात मलको धारण करनेवाली, अंगविकारसे रहित और सर्वत्र यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्तिरूप है । यह मूर्तिमान् प्रशमसुखकी तरह है । इसके होनेपर न तो दूसरों से अपनेको भय होता है और न अपने से दूसरों को ।
अर्हन्त आदि परमगुरुओं में यथायोग्य पूजा-भक्ति आदि तथा ज्ञान आदिमें यथाविधि भक्ति से युक्त गुरुओं में सर्वत्र अनुकूलवृत्ति रखनेवाली, प्रश्न स्वाध्याय वाचना कथा और विज्ञप्ति आदि में कुशल, देशकाल और भावके स्त्ररूपको समझने में तत्पर तथा आचार्यके मतका आचरण करनेवाली विनयशुद्धि है । समस्त सम्पदाएँ विनयमूलक हैं। यह पुरुषका भूषण है । यह संसार-समुद्रसे पार उतारनेके लिए नौकाके समान है ।
अनेक प्रकारके जीवस्थान जीवयोनि जीवाश्रय आदिके विशिष्ट ज्ञानपूर्वक प्रयत्नके द्वारा जिसमें जन्तुपीड़ाका बचाव किया जाता है, जिसमें ज्ञान सूर्यप्रकाश और इन्द्रियप्रकाश से अच्छी तरह देखकर गमन किया जाता है तथा जो शीघ्र बिलम्बित सम्भ्रान्त विस्मित लीलाविकार अन्य दिशाओंकी ओर देखना आदि गमनके दोषोंसे रहित गतिवाली है वह ईर्यापथशुद्धि है । इस के होनेपर संयम उसी तरह प्रतिष्ठित होता है जैसे कि सुनीति से विभव ।
जिसमें भिक्षाको जाते समय दोनों ओर दृष्टि रखी जाती है, पूर्वापर स्वांगदेशका परिमार्जन होता है, आचारसूत्रोक्त काल देशे प्रकृति आदिकी प्रतिपत्तिमें जो कुशल है, जिसमें लाभ-अलाभ मान-अपमान आदि में समान मनोवृत्ति रहती है, लोकगर्हित कुलोंका परिवर्जन करनेवाली, चन्द्रकी तरह कम और अधिक गृहोंकी जिसमें मर्यादा हो, विशिष्ट विधानवाली, दीननाथदानशाला विवाह यज्ञ भोजन आदिका जिसमें परिहार होता है, दीनवृत्तिसे रहित, प्राक आहार ढूँढना ही जिसका मुख्य लक्ष्य है, तथा आगमविधिसे प्राप्त निर्दोष भोजनसे ही जिसमें प्राणयात्रा चलाई जाती है वह भिक्षा शुद्धि है । जैसे साधुजनों की सेवासे गुणसम्पत्ति मिलती है उसी तरह भिक्षाशुद्धिसे चारित्र सम्पत्ति । यह लाभ और अलाभ तथा सरस और विरसमें समान सन्तोष होनेसे भिक्षा कही जाती है। जैसे गाय गहनों से सजो हुई सुन्दर युवतीके द्वारा लाई गई घासको खाते समय घासको ही देखती है लानेवालीके अंग सौन्दर्य आदिको नहीं, अथवा अनेक जगह यथालाभ उपलब्ध होनेवाले चारेके पूरेको ही खाती है उसकी सजावट आदिको नहीं देखती उसी तरह भिक्षु भी परोसनेवालेके मृदुललित रूप वेष और विलास आदिके देखनेकी उत्सुकता नहीं रखता और न आहार सूखा है या गीला या कैसे चाँदी आदिके बर्तनोंमें रखा है या कैसी उसकी योजना की गई है आदिकी ओर ही उसकी दृष्टि