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७३० - तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[१३ प्राणोंसे भिन्न है अतः उसके वियोगमें भी आत्माको दुःख नहीं होना चाहिए' यह शंका ठीक नहीं है ; क्योंकि जब सर्वथा भिन्न पुत्र कलत्र आदिके वियोगमें आत्माको परिताप होता है तब कथंचित भिन्न प्राणोंके वियोगमें तो होना ही चाहिए। यद्यपि शरीर और शरीरीमें लक्षणभेदसे नानात्व है फिर भी बन्धके प्रति दोनों एक हैं अतः शरीरवियोगपूर्वक होनेवाला दुःख आत्माको ही होता है, अतः हिंसा और अधर्म है । हाँ, जो आत्माको निष्क्रिय नित्य शुद्ध और सर्वगत मानते हैं उनके यहाँ शरीरसे बन्ध नहीं हो सकेगा और न दुःख ही होगा अतः उनके मतमें हिंसा नहीं हो सकती।
६ १२. प्रमत्तयोग और प्राणव्यपरोपण ये दोनों विशेषण यह सूचना करते हैं कि दोनोंके होनेपर हिंसा होती है, एकके भी अभावमें हिंसा नहीं होती। तात्पर्य यह कि जब प्रमत्तयोग नहीं होता, केवल प्राणव्यपरोपण है तो वह हिंसा नहीं कही जायगी । कहा भी है
"प्राणोंसे वियोग करता हुआ भी (अप्रमत्त ) वधसे लिप्त नहीं होता"
"ईर्यासमितिपूर्वक गमन करनेवाले साधु के पैरके नीचे यदि कोई जीव आ जाय और मर जाय तो भी उसे तन्निमित्तक सूक्ष्म भी बन्ध नहीं होता। अध्यात्मप्रमाणसे तो मूर्छा-ममत्वभावको ही परिग्रह कहा है।"
प्रश्न-आपने दोनों विशेषणोंको आवश्यक बताया है पर शास्त्रमें तो प्राणव्यपरोपण नहीं होनेपर भी केवल प्रमत्तयोगसे भी हिंसा बताई है ? कहा भी है-"जीव मरे या न मरे परन्तु सावधानीपूर्वक नहीं बरतनेवालेको हिंसा है ही। जो प्रयत्नशील है उसके द्वारा हिंसा भी हो जाय पर उसे बन्ध नहीं होता" ? उत्तर-जहाँ प्रमत्तयोग है वहाँ स्वयंके ज्ञान दर्शन आदि भावप्राणोंका वियोग होता ही है। अतः भाषप्राणों के वियोगकी अपेक्षा दोनों विशेषण सार्थक हैं। कहा भी है-"प्रमाक्वान् आत्मा अपने प्रमादी भावोंसे पहिले स्वयं अपनी हिंसा करता ही है, दूसरे प्राणीका पीछे वध हो या न भी हो।" अतः यह दोष भी नहीं होता है कि - "जलमें थलमें और आकाशमें सब जगह जन्तु ही जन्तु हैं। इस जन्तुमय जगत्में भिक्षु अहिंसक कैसे रह सकता है ?" क्योंकि ज्ञानध्यानपरायण अप्रमत्त भिक्षुको मात्र प्राणवियोगसे हिंसा नहीं होती। जीव भी स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकारके हैं, उनमें जो सूक्ष्म हैं वे तो न किसीसे रुकते हैं और न किसीको रोकते हैं अतः उनकी तो हिंसा होती नहीं है । जो स्थूल जीव हैं उनकी यथाशक्ति रक्षा की जाती है। जिनकी हिंसाका रोकना शक्य है उसे प्रयत्नपूर्वक रोकनेवाले संयतके हिंसा कैसे हो सकती है ?
१३. यदि प्राणी-आत्माका सद्भाव न माना जाय तो कर्ताका अभाव होनेसे कुशल और अकुशल कर्मपूर्वक होनेवाले प्राणोंका भी अभाव हो जायगा । अतः कर्मभूत प्राणोंका सद्भाव ही कतृभूत प्राणीका सद्भाव सिद्ध करता है, जिस प्रकार कि सँडसी आदि हथियारोंसे लुहारको सत्ता सिद्ध होती है। एक आत्माकी सत्ता न मानने पर रूपण अनुभवन उपलम्भन निमित्तग्रहण और संस्करण आदि भिन्नलक्षणवाले रूप वेदना विज्ञान संज्ञा और संस्कार नामक पाँचों स्कन्ध जब परस्परोपकारके प्रति उत्सुकतासे रहित हैं और क्षणिक होनेसे अपना ही कार्य करनेमें असमर्थ हैं तो वे हिंसाव्यापारमें समर्थ नहीं हो सकते। स्मृति अभिप्राय और संकल्प रूप चि। जब भिन्नाधिकरण हैं, एक कर्तारूपसे उनका प्रतिसन्धान नहीं होता, तब हिंसा आदि व्यापार कैसे हो सकेंगे ? उत्पत्ति के बाद ही तुरंत विनाश माननेपर तथा विनाशको निर्हेतुक माननेसे प्राणविनाशरूप हिंसाका भी कोई हेतु नहीं हो सकता, जब और हिंसक नहीं होगा तब किसीको क्यों हिंसाका फल लगेगा ? यदि हिंसाके अकारणको भी हिंसाका फल मिलता है तो जगत्में कोई अहिंसक ही नहीं रह सकेगा। 'भिन्न सन्तान-प्राणवियुक्तरूप क्षणोंको उत्पन्न करनेवाला हिंसक है' यह कल्पना भी ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वथा असत्की उत्पत्तिका कोई