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________________ ६१० छठाँ अध्याय ७१३ असम्बद्ध हो जायगा' यह भी समाधान ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ कोई निवर्त्य नहीं है। आद्य जीवाधिकरणका तो संरम्भ आदिसे सम्बन्ध हो ही गया है। अतः परिशेष न्यायसे ये अजीवाधिकरण हो ही जाते हैं। पर शब्दको प्रकृष्टवाची कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जीवाधिकरण निकृष्ट तो है नहीं जिसका प्रकृष्ट अजीवाधिकरणसे वारण किया जाय । इसी तरह पर शब्दको 'पर धामको गये अर्थात् इष्ट धामको गये इसकी तरह इष्टवाची भी नहीं कह सकते क्योंकि यहाँ अनिष्ट क्या है जिसकी निवृत्तिके लिए पर शब्दको इष्टवाची कहा जाय ? उत्तर-पर शब्द भिन्नार्थक है अथोत संरम्भ आदिसे निर्वर्तना आदि भिन्न हैं। अन्यथा निर्वर्तना। को भी आत्मपरिणामरूपता आ जानेसे जीवाधिकरणत्वका प्रसंग प्राप्त होता। अथवा, पहिले कह दिया है कि आद्यकी तरह 'पर' शब्द भी स्पष्ट अर्थबोध कराने के लिए है। १२. पाँच प्रकारके शरीर वचन मन और श्वासोच्छ्वास मूलगुण निर्वर्तना हैं और काष्ठ पुस्त चित्रकर्म आदि उत्तरगुण निर्वर्तना हैं। ६ १३. अप्रत्यवेक्षित दुष्प्रमृष्ट सहसा और अनाभोगके भेदसे निक्षेप चार प्रकारका है। ६१४. भक्तपानसंयोग और उपकरणसंयोगके भेदसे संयोग दो प्रकारका है। १५. मन वचन और कायके भेदसे निसर्ग तीन प्रकारका है। ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवके कारणतत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥१०॥ ६१-७. ज्ञान-कथाके समय मुँहसे कुछ न कहकर भीतर-ही भीतर ईर्ष्याके परिणाम होना प्रदोष है। किसी बहानेसे 'नहीं है, नहीं जानता' इत्यादि रूपसे शानका लोप करना निहव है। देने योग्य ज्ञानको भी किसी बहानेसे न देना मात्सर्य है। कलुपतासे ज्ञानका व्यवच्छेद करना अन्तराय है। दूसरेके द्वारा प्रकाशित ज्ञानका काय या वचनके द्वारा वृर्जन करना आसादन है। बुद्धि और हृदयकी कलुषतासे प्रशस्त ज्ञानमें दूषण लगाना उपघात है। आसादनमें विद्यमान ज्ञानका विनय प्रकाशन गुणकीर्तन आदि न करके अनादर किया जाता है और उपघातमें ज्ञानको अज्ञान ही कहकर ज्ञानका नाश किया जाता है। ६८-९. तत् शब्दसे ज्ञान और दर्शनका ग्रहण किया जाता है अर्थात् ज्ञान और दर्शनके प्रदोष निह्नव आदि ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवके कारण होते हैं । 'ज्ञानदर्शनावरणयोः' कहनेसे ज्ञात होता है कि प्रदोष आदि ज्ञान और दर्शन सम्बन्धी हैं। इसी तरह ज्ञान दर्शनवालोंके प्रदोष आदि और ज्ञानदर्शनके साधनोंके प्रदोष आदि भी 'तत्प्रदोष' शब्दसे ग्रहण कर लेने चाहिये। १०-११. प्रश्न-ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवके कारण तुल्य हैं अतः दोनोंको एक ही कहना चाहिए। जिनके कारण तुल्य होते हैं वे एक होते हैं। उत्तर तुल्य कारण होने से कार्यक्य माना जाय तो जब वचनके कारण कण्ठ ओंठ आदि तुल्य हैं तो प्रत्येक वचनको या तो साधक होना चाहिए या दूषक ही। इस तरह स्ववचनविरोध ही हो जायगा। यदि एक हेतु क होनेपर भी वचन स्वपक्षके ही साधक तथा परपक्षके ही दूषक होते है तो 'तुल्यहेतु होनेसे कार्यक्य होता है' इस वचनका विरोध हो जायगा। इस पक्षमें दृष्ट और आगम दोनोंसे ही विरोध आता है। एक मिट्टीके पिण्डसे ही घट घटी शराव उदश्चन-सकोरा आदि अनेक कार्योंकी प्रत्यक्षसिद्धि है। सांख्य एक प्रधानसे महान अहंकार आदि नाना कार्य मानते हैं। उत्पत्ति अविद्या रूप प्रत्ययसे पुण्य अपुण्य और अनुभय संस्कारोंकी उत्पत्ति मानते षिक चतुष्टय सन्निकर्षसे रूपादि ज्ञान आदि नाना कार्योकी उत्पत्ति मानते हैं । इस तरह सभीक आगमविरोध दोषका प्रसंग होता है।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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