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५।३९-४१]
पाँचवाँ अध्याय
कालश्च ॥३९॥ $ १-२. 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' और 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इन लक्षणोंसे युक्त होनेके कारण आकाश आदिकी तरह काल भी द्रव्य है । कालमें ध्रौव्य तोस्वप्रत्यय ही है क्योंकि वह स्वस्वभावमें सदा व्यवस्थित रहता है । व्यय और उत्पाद अगुरुलघुगुणोंकी वृद्धि-हानि की अपेक्षा स्वप्रत्यय हैं तथा पर द्रव्योंमें वर्तनाहेतु होनेसे परप्रत्यय भी हैं । कालमें अचेतनत्व अमूर्तत्व सूक्ष्मत्व अगुरुलघुत्व आदि साधारण गुण और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण पाये जाते हैं । व्यय और उत्पाद रूप पर्यायें भी कालमें बराबर होती रहती हैं । अतः वह द्रव्य है।
सोऽनन्तसमयः ॥४०॥ काल अनन्त समयपर्यायवाला है।
६१. मुख्य परमार्थ कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं। अनन्त समयका निर्देश व्यवहारकालका है। वर्तमान काल एक समयका है पर अतीत और अनागतकाल अनन्त समयवाले हैं।
२. अथवा, मुख्य ही कालाणु अनन्त पर्यायोंकी वर्तनामें कारण होनेसे अनन्त कहा जाता है । अतिसूक्ष्म अविभागी कालांशको समय कहते हैं। समयके समुदायरूप आवलि आदि होते हैं।
द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥४१॥ जो द्रव्यमें रहते हों तथा स्वयं निर्गुण हों वे गुण हैं।
६१-४. आश्रय अर्थात् आधार । अथवा गुणोंके द्वारा जो आश्रय स्वरूपसे स्वीकृत होता हो वह आश्रय है । यदि 'द्रव्याश्रया गुणाः' इतना ही सूत्र बनाते तो द्वथणुकादि कार्य द्रव्य भी परमाणुरूप कारणद्रव्यमें रहते हैं अतः उनमें गुणत्वके प्रसंगका निवारण करनेके लिए 'निर्गुणाः' विशेपण दिया है। क्योंकि द्वथणुकादिमें रूपादिगुणोंका सद्भाव है। प्रश्न-यदि 'द्रव्याश्रया गुणा:' इतना ही लक्षण गुणोंका किया जाता तो घट संस्थान आदि पर्यायें भी द्रव्याश्रित और निर्गुण होनेसे गुण बन जायँगी। उत्तर-द्रव्याश्रया' विशेषणसे पर्यायोंमें गुणत्वके प्रसंगका वारण हो जाता है।
'द्रव्याश्रयाः' यह विशेषण आश्रयकी प्रतीतिके लिए है' यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि सामर्थ्यसे ही यह सिद्ध हो जाता है कि गुणोंका कोई न कोई आश्रय चाहिए, गुण निराधार नहीं रह सकते और द्रव्यको छोड़कर अन्य आधार हो नहीं सकता। अतः 'द्रव्याश्रयाः' पद निरर्थक होकर पर्याय निवृत्तिका ज्ञापक हो जाता है। .
प्रश्न-अधिक शब्द होनेसे अर्थ भी अधिक होता है । अतः क्या उससे पर्यायकी निवृत्तिका प्रयोजन साधना उचित है ? उत्तर-नहीं, 'द्रव्याश्रयाः' यह अन्यपदार्थक समास मत्वर्थ में है । मत्वर्थ नित्ययोगका सूचन करता है । अर्थात् जो नित्य ही द्रव्यमें रहता हो वह गुण है। पर्यायें यद्यपि द्रव्यमें रहती हैं पर वे कादाचित्क हैं, अतः 'द्रव्याश्रयाः' पदसे उनका ग्रहण नहीं होता । अतः अन्वयी धर्म गुण हैं जैसे कि जीवके अस्तित्व आदि और ज्ञान दर्शन आदि, पुदलके अचेतनत्व आदि रूप रस आदि। घटज्ञान आदि जीवकी पर्यायें हैं और कपाल आदि विकार पुद्गलकी पर्यायें हैं। परिणामका लक्षण
तद्भावः परिणामः ॥४२॥ अथवा, 'वैशेषिक गुणोंको द्रव्यसे भिन्न मानते हैं। यह पक्ष जैनोंको सम्मत नहीं है। व्यपदेश हेतुभेद आदिकी अपेक्षा द्रव्यसे भिन्न होकर भी गुण द्रव्यसे भिन्न उपलब्ध नहीं होते तथा द्रव्यके ही परिणाम हैं अतः अभिन्न भी हैं। अब बताइए परिणाम किसे कहते हैं