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________________ ५।२४] पाँचवाँ अध्याय स्फोटवादी मीमांसकोंका मत है कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं, क्रमशः उत्पन्न होती हैं और अनन्तर क्षणमें विनष्ट हो जाती हैं। वे स्वरूपके बोध कराने में ही क्षीणशक्ति हो जाती हैं, अतः अर्थान्तरका ज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं। यदि ध्वनियाँ ही समर्थ होतीं तो पदोंसे पदार्थकी तरह प्रत्येक वर्णसे अर्थबोध होना चाहिए। एक वर्ण के द्वारा अर्थबोध होनेपर वर्णान्तरका उपादान निरर्थक है । क्रमसे उत्पन्न होनेवाली ध्वनियोंका सहभावरूप संघात भी संभव नहीं है, जिससे अर्थबोध हो सके। अतः उन ध्वनियोंसे अभिव्यक्त होनेवाला, अर्थप्रतिपादनमें समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय निरवयव और निष्क्रिय शब्दस्फोट स्वीकार करना चाहिए । उनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि ध्वनि और स्फोटमें व्यंग्यव्यञ्जकभाव नहीं बन सकता। जिस शब्दस्फोटको व्यंग्य मानते हैं वह स्वरूपमें स्थित है या अस्थित ? यदि स्वरूपसे स्थित है, तो ध्वनियोंसे पहिले और बादमें उसके अनुपलब्ध होनेका क्या कारण है-सूक्ष्मता या किसी प्रतिबन्धकका सद्भाव ? यदि सूक्ष्मता कारण है; तो आकाशकी तरह सदा अर्थात् ध्वनिकालमें भी अनुपलब्ध रहना चाहिए। यदि ध्वनियोंसे उसकी सूक्ष्मता हटकर स्थूलता आ जाती है तो वह नित्य नहीं रहेगा, क्योंकि उसमें विकार आ गया है। घटकी उपलब्धिके लिए प्रतिबन्धकभूत अन्धकारकी तरह यहाँ कोई प्रतिबन्धक भी नहीं है । अन्धकार केवल अभावात्मक नहीं है किन्तु नील वर्णकी तरह अतिशयवाला और वृद्धि-हानिवाला होनेसे वह वस्तुभूत है। यदि स्फोट स्वरूपसे अनवस्थित है तो वह व्यङ्ग्य नहीं हो सकता और न ध्वनियाँ व्यञ्जक; किन्तु ध्वनियोंसे स्वरूपलाम करनेके कारण उसे कार्य मानना होगा। किंच, प्रथम ध्वनि शव्दस्फोटको यदि पूरे रूपसे प्रकट कर देती है तो दूसरी तीसरी आदि ध्वनियाँ निरर्थक हो जायँगी। यदि उसके एक देशको प्रकट करती हैं तो वह निरवयव नहीं रहकर सावयव हो जायगा । किंच, ध्वनियाँ स्फोटकी व्यञ्जक होती हैं तो वे स्फोटका उपकार करेंगी या श्रोत्रका या दोनोंका? जिस प्रकार जलके सींचनेसे पृथिवीकी गन्ध प्रकट होती है उस तरह ध्वनियाँ स्फोटका उपकार नहीं कर सकतीं, क्योंकि वह नित्य है, अतः उसमें विकार या किसीके द्वारा किया गया कोई अतिशय नहीं आ सकता। अमूर्त नित्य और अभिव्यङ्ग्य स्फोटमें कोई विकार हो नहीं सकता। जिस प्रकार अंजन चक्षुका उपकारक होता है उस तरह ध्वनियाँ श्रोत्रका भी उपकार नहीं कर सकतीं; क्योंकि वधिर-बहरेकी इन्द्रियमें तो उपकार हो नहीं सकता । स्वस्थ कर्णका उपकार यही है कि उसके द्वारा शब्दका बोध हो जाय । सो यह कार्य तो जब ध्वनियोंसे ही हो जाता है तो फिर स्फोटकी कल्पना ही व्यर्थ हो जाती है। इसी तरह दोनोंका उपकार भी नहीं बनता । किंच, जब ध्वनियाँ उत्पत्तिके बाद ही नष्ट हो जाती हैं तब वे स्फोटकी अभिव्यक्ति कैसे करेंगी ? यदि क्षणिक होकर भी वे स्फोटकी अभिव्यक्ति कर सकती हैं तो सीधा अर्थबोध कराने में क्या बाधा है ? जिससे एक निरर्थक स्फोट माना जाय ? दीपक भी सर्वथा क्षणिक नहीं है, क्योंकि उसके द्वारा देशान्तरवर्ती पदार्थोंका प्रकाश होता है। 'कर्मव्यक्तियाँ क्षणिक होकर भी कर्मत्व जातिकी अभिव्यक्ति करती हैं। यह पक्ष भी ठीक नहीं है ; क्योंकि हम द्रव्य गुण और कर्ममें रहनेवाला भिन्न सामान्य पदार्थ ही नहीं मानते । कर्म भी द्रव्यसे भिन्न पदार्थ नहीं है और द्रव्य दृष्टिसे वह स्थिर है क्षणिक नहीं। किंच, अभिव्यंजक और अभिव्यंग्योंसे विलक्षण होनेके कारण भी स्फोटकी अभिव्यक्तिकी कल्पना करना उचित नहीं है । जैसे मूर्त और क्रियावान् दीपकके द्वारा मूर्त और सक्रिय ही घटादि अभिव्यक्त होते हैं उस तरह न तो ध्वनियाँ ही मूर्त और क्रियाशील हैं और न स्फोट ही । अतः अभिव्यक्तिकी कल्पना उचित नहीं है । किंच, स्फोट यदि ध्वनियोंसे अभिन्न है तो दोनोंके एक ही होजनेसे वह व्यंग्य नहीं रह सकेगा। यदि भिन्न है तोश्रोत्रेन्द्रियसे उपलब्ध नहीं होना चाहिए । किंच, यदि स्फोटको व्यंग्य मानते हैं तो उसमें घटादिकी तरह अनित्यता भी आ जानी चाहिए । 'झानके द्वारा अभिव्यङ्गय आकाश होता है और वह नित्य है अतः
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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