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५।२२] पाँचवाँ अध्याय
६८७ ही होना चाहिए। यदि भिन्न है; तो गुणसमुदायमात्रको ही द्रव्य नहीं मानना चाहिए। यदि एक धर्म नष्ट होता है तथा अन्य उत्पन्न, तो फिर नित्यैकान्तपक्ष समाप्त हो जाता है। किंच, समुदाय गुणोंसे भिन्न है या अभिन्न ? यदि अभिन्न है; तो गुणमात्र ही रह जायँगे, समुदाय क्या रहेगा ? और जब समुदाय नहीं रहेगा तो उसके अविनाभावी गुणोंका भी अभाव हो जायगा। यदि समुदाय भिन्न माना जाता है तो 'गुणसमुदायमात्र द्रव्य है। इस प्रतिज्ञाका विरोध होगा तथा परस्पर अविनाभावी गुण और समुदाय दोनोंका अभाव हो जायगा । यदि पूर्वभावके अन्यभावरूपहोनेको परिणाम कहते हैं तो सुख-दुःख और मोह शब्दादि या घटादिरूप हो जायँगे । ऐसी हालतमें शब्दादि या घटादिमें सुखादिके समन्वयकी बात नहीं रहती। यदि समन्वय स्वीकार किया जाता है तो 'पूर्वभावका अन्यभाव होना परिणाम है' परिणामका यह लक्षण नहीं बनता।फिर, 'जो जिस रूपमें नहीं है उसमें वह रूप नहीं आ सकता' यह साधारण नियम है जैसे कि अभाव भावरूपसे नहीं है तो उसमें भावरूपता नहीं आ सकती। इसी तरह गुणोंमें यदि स्थूलरूपता नहीं है तो उनमें स्थूलरूपता नहीं आ सकती। यदि उनमें वह रूप है; तो भी परिणाम कैसा ? जिसमें जो रूप विद्यमान है उसमें फिरसे वही रूप तो प्राप्त हो नहीं सकता । अभाव अभावात्मक है तो वह फिरसे अभावात्मक क्या होगा ? इस तरह एकान्तपक्षमें दोनों प्रकारसे परिणाम नहीं बन पाता अतः अनेकान्तवाद स्वीकार करना चाहिए। अनेकान्त पक्षमें पर्यायार्थिक दृष्टिसे अन्यभावता हो सकती है और द्रव्यार्थिक दृष्टिसे स्थिरता । अतः द्रव्यदृष्टिसे अवस्थित द्रव्यमें हो पर्यायदृष्टिसे एककी निवृत्ति तथा अन्यकी उत्पत्तिरूप परिणाम हो सकता है।
१९. बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तोंसे द्रव्यमें होनेवाला परिस्पन्दात्मक परिणमन क्रिया है। वह दो प्रकारकी है-बैलगाड़ी आदिमें प्रायोगिक तथा मेघ आदिमें स्वाभाविक क्रिया होती है।
२०-२१. प्रश्न-यदि स्थिति-ठहरना रूप क्रियाका परिणाममें अन्तर्भाव होता है, तो परिस्पन्दात्मक क्रियाका भी उसीमें अन्तर्भाव हो सकता है, और ऐसी स्थितिमें केवल परिणामका ही निर्देश करना चाहिए । उत्तर-परिस्पन्दात्मक और अपरिस्पन्दात्मक दोनों प्रकारके भावोंकी सूचना के लिए क्रियाका पृथक ग्रहण करना आवश्यक है। परिस्पन्द क्रिया है तथा अन्य परिणाम।
२२. परत्व और अपरत्व क्षेत्रकृत भी हैं जैसे दूरवर्ती पदार्थ 'पर' और समीपवर्ती 'अपर' कहा जाता है। गुणकृत भी होते हैं जैसे अहिंसा आदि प्रशस्त गुणांके कारण धर्म 'पर' और अधर्म 'अपर' कहा जाता है । कालकृत भी होते हैं जैसे सौ वर्षवाला वृद्ध पर'और सोलह वर्षका कुमार 'अपर' कहा जाता है। यहाँ कालके उपकारका प्रकरण है, अतः कालकृत ही परत्व
और अपरत्व लेना चाहिए। दूरदेशवर्ती कुमार तपस्वीकी अपेक्षा समीप देशवर्ती वृद्ध चाण्डालमें कालको अपेक्षा 'पर' व्यवहार देखा जाता है और कुमार तपस्वीमें 'अपर' व्यवहार । ये परत्वापरत्व कालकृत हैं।
२३ वर्तना परिणाम आदि उपकार रूप लिंगांके द्वारा कालद्रव्यका अनुमान होता है। कहा भी है-"जिससे मूर्तद्रव्योंका उपचय और अपचय लक्षित होते हैं वह काल है।"
२४. प्रश्न-कालके अस्तित्वकी सिद्धिके लिए वर्तनाका ग्रहण ही पर्याप्त है क्योंकि परिणाम आदि वर्तनाके ही विशेष हैं ? उत्तर-'मुख्यकाल और व्यवहारकाल' इन दो प्रकारके कालोंकी स्पष्ट सूचनाके लिए यह विस्तार किया गया है। जिस प्रकार धर्म अधर्म आदि गति और स्थितिमें उपकारक हैं उसी तरह वर्तनामें मुख्य कालद्रव्य उपकारक है। प्रत्येक लोकाकाशके प्रदेशपर एक-एक कालाणु द्रव्य स्थित हैं। इनका परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। इनमें धर्मअधर्म आदिकी तरह मुख्य रूपसे प्रदेशप्रचय नहीं है और न पुद्गलपरमाणुकी तरह प्रचयशक्ति