SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [५२२ प्रथम समयमें पाक न हुआ होता तो दूसरे तीसरे आदि क्षणों में भी सम्भव नहीं हो सकता था। इस तरह पाकका ही अभाव हो जायगा। ६६. कालका लक्षण वर्तना है। समय आदि क्रियाविशेषोंकी तथा समयसे निष्पन्न पाकादि पर्यायोंकी, जो कि स्वसत्ताका अनुभव करके स्वतः ही वर्तमान हैं, उत्पत्तिका बाह्य कारण काल है। न में 'समय, पाक' आदि व्यवहार तो होते हैं पर 'काल' यह व्यवहार बिना कालद्रव्यके नहीं हो सकता । इस तरह काल अनुमेय होता है। ६७. आदित्य-सूर्यकी गतिसे द्रव्योंमें वर्तना. नहीं हो सकती; क्योंकि सूर्यकी गतिमें भी 'भूत वर्तमान भविष्यत' आदि कालिक व्यवहार देखे जाते हैं। वह भी एक क्रिया है। उसकी वर्तनामें भी किसी अन्यको हेतु मानना ही चाहिए । वही काल है। ६८. जैसे वर्तन चावलों का आधार है, पर पाकके लिए वो अग्निका व्यापार ही चाहिए उसी तरह आकाश वर्तनावाले द्रव्योंका आधार तो हो सकता है वह वर्तनाकी उत्पत्तिमें सहकारी नहीं हो सकता । उसमें तो काल द्रव्यका ही व्यापार है। ९. सत्ता यद्यपि सर्वपदार्थों में रहती है, साधारण है, पर वर्तना सत्ताहेतुक नहीं हो सकती क्योंकि वर्तना सत्ताका भी उपकार करती है। कालसे अनुगृहीत वर्तना ही सत्ता कहलाती है । अतः काल पृथक ही होना चाहिए। १०. द्रव्यका अपनी स्वद्रव्यत्वजातिको नहीं छोड़ते हुए जो स्वाभाविक या प्रायोगिक परिवर्तन होता है उसे परिणाम कहते हैं । द्रव्यत्व जाति यद्यपि द्रव्यसे भिन्न नहीं है फिर भी द्रव्यार्थिककी अविवक्षा और पर्यायार्थिककी प्रधानतामें उसका पृथक् व्यवहार हो जाता है। तात्पर्य यह कि अपनी मौलिक सत्ताको न छोड़ते हुए पूर्वपर्यायकी निवृत्तिपूर्वक जो उत्तर पर्यायका उत्पन्न होना है वही परिणाम है। प्रयोग अर्थात् पुद्गल विकार । प्रयोगके बिना होनेवाली विक्रिया विनसा होती है। परिणाम दो प्रकारका है-एक अनादि, दूसरा आदिमान् । लोककी रचना सुमेरु पर्वत आदिके आकार इत्यादि अनादि परिणाम हैं । आदिमान दो प्रकारके हैं-एक प्रयोगजन्य और दूसरे स्वाभाविक । चेतन द्रव्यके औपशमिकादि भाव जो मात्र कर्मों के उपशम आदिकी अपेक्षासे होते हैं। पुरुष प्रयत्नकी जिनमें आवश्यकता नहीं होती वे वैनसिक परिणाम हैं । ज्ञान शील भावना आदि गुरूपदेशके निमित्तसे होते हैं, अतः ये प्रयोगज हैं । अचेतन मिट्टी आदिका कुम्हार आदिके प्रयोगसे होनेवाला घट आदि परिणमन प्रयोगज है और इन्द्रधनुष मेघ आदि रूपसे परिणमन वैस्रसिक है। ६११. प्रश्न-बीज अंकुरमें है या नहीं ? यदि है; तो वह अंकुर नहीं कहा जा सकता बीजकी तरह । यदि नहीं है, तो कहना होगा कि बीज अंकुर रूपसे परिणत नहीं हुआ क्योंकि उसमें बीजस्वभावता नहीं है। इस प्रकार सत् और असत्, दोनों पक्षमें दूषण आते हैं, अतः परिणाम हो ही नहीं सकता? ___ उत्तर-पक्षान्तर अर्थात् कथञ्चित् सदसद्वादमें सर्वथा सत् पक्षक और सर्वथा असत् पक्षके दोष नहीं आते और न उभय पक्षके दोनों दोष हो आ सकते हैं, क्योंकि कथञ्चित् सदसद्वाद 'नरसिंह'की तरह जात्यन्तर रूप है। शालिबीजादि द्रव्यार्थिक दृष्टिसे अंकुरमें बीज है, यदि उसका निरन्वय विनाश हो गया होता तो वह 'शालिका अंकुर' क्यों कहलाता है ? शालिबीज और शायंकुर रूप पर्यायार्थिक दृष्टिसे अंकुरमें बीज नहीं है क्योंकि यदि बीजका परिणमन नहीं हुआ होता तो अंकुर कहाँसे आता ? अतः अनेकान्त वादमें कोई दूषण नहीं है। ६ १२. हम यह पूछते हैं कि-'जिस परिणामका तुम निषेध करते हो वह विद्यमान है, या नहीं ? दोनों ही पक्षमें प्रतिषेध नहीं किया जा सकता। यदि परिणाम विद्यमान है। तब निषेध कैसा ? यदि विद्यमानका निषेध करते हो; तो 'परिणामका प्रतिषेध' भी विद्यमान है,
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy