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तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी सार
[शक्ष ६१६. आगममें जीवके प्रदेशोंको स्थित और अस्थित दो रूपमें बताया है। सुख दुःखका अनुभव पर्यायपरिवर्तन या क्रोधादि दशामें जीवके प्रदेशोंकी उथल-पुथलको अस्थिति तथा उथल-पुथल न होनेको स्थिति कहते हैं। जीवके आठ मध्यप्रदेश सदा निरपवाद.रूपसे स्थित ही रहते हैं । अयोगकेवली और सिद्धोंके सभी प्रदेश स्थित हैं । व्यायामके समय या दुःख परिताप आदिके समय जीवोंके उक्त आठ मध्यप्रदेशों को छोड़कर बाकी प्रदेश अस्थित होते हैं । शेप जीवोंके स्थित और अस्थित दोनों प्रकारके हैं। अतः ज्ञात होता है कि द्रव्योंके मुख्य ही प्रदेश हैं, गौण नहीं।
६१७. चूंकि आगममें वीर्यान्तराय और मतिश्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मके उदयमै आत्माके उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रदेशम चक्षु इन्द्रिय पर्यायकी प्राप्ति वताई गई है। इस तरह अमुक प्रदेशों में उसका परिणमन बतानेसे ज्ञात होता है कि आत्मादिके मुख्य ही प्रदेश हैं।
६१८. द्रव्यों की प्रतिनियत स्थानों में स्थिति वताई जानेसे भी ज्ञात होता है कि आकाश आदिमें मुख्य ही प्रदेश हैं। पटना आकाशके दूसरे प्रदेशमें है और मथुरा अन्य प्रदेशमें । यदि आकाश अप्रदेशी होता तो पटना और मथुरा एक ही जगह हो जाते।
१६. वैशेपिकोंके मतमें संसारी जीवके कानके भीतर आया हुआ आकाशप्रदेश श्रोत्र कहलाता है। यह अदृष्टविशेपसे संस्कृत होकर शब्दोपलब्धि करता है। यदि आकाशके प्रदेश न माने जायंगे तो संपूर्ण आकाशको श्रोत्र कहना होगा। ऐसी दशामें सभी प्राणियोंको सभी शब्द सुनाई देना चाहिए। यदि प्रदेशविशेषको श्रोत्र कहते हैं तो आकाशको अप्रदेशी कहना खंडित हो जाता है । अथवा एक परमाणु पूरे आकाशसे सम्बन्धको प्राप्त होता है या एक देशसे ? यदि पूरे आकाशसे, तो या तो आकाशको परमाणुरूप मानना होगा या फिर परमाणुको आकाशके बराबर । यदि एक देशसे; तो स्पष्ट सिद्ध होता है कि आकाशके मुख्य ही प्रदेश हैं।
२०. वैशेपिक मतमें कर्म उत्पन्न होते ही अपने आश्रयको एक आधारसे हटाकर दूसरे आधारसे संयुक्त कराता है। यह कर्मका स्वभाव है। इससे स्पष्ट है कि आकाशके प्रदेशभेद है अन्यथा किसीसे संयोग और किसीसे वियोग कैसे बन सकता है ? यदि प्रदेशान्तरसंक्रमण न हो तो कर्मका ही अभाव हो जायगा।
२१. आत्माके सामान्य पुरुषशरीरको दृष्टिसे प्रदेशोंमें एकत्व है और सिर पैर, हाथ, नाक आदि अंग-उपांग रूप पर्यायकी दृष्टिसे भेद है। इस तरह प्रदेशोंके एकत्व और अनेकत्वमें अनेकान्त है। अथवा, पुरुष द्रव्यकी दृष्टिसे एकत्व होनेपर पाचक लावक (काटनेवाला) आदि पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेकत्व है। अथवा, पिता पुत्र चाचा मामा आदि पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेकता है। अथवा, पंचेन्द्रिय आरोग्य मेधावी पटु कुशल सुशील आदि व्यवहारोंमें कारणभूत पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेकता है। इसी तरह धर्म अधर्म आकाश आदिमें स्वद्रव्यकी विवक्षामें एकत्व है और तत्तत् पर्यायोंकी विवक्षामें अनेकत्व है।
२२. शुद्धनयकी दृष्टिसे अखंड उपयोग स्वभावकी विवक्षासे आत्मामें प्रदेश-भेद न होनेपर भी व्यवहारनयसे संसारी जीव अनादि कर्मबन्धन बद्ध होनेसे सावयव ही है। आकाशकी प्रदेशसंख्या
आकाशस्यानन्ताः॥8॥ आकाशके अनन्त प्रदेश हैं।
१-२. अनन्त अर्थात् जिनका अन्त न हो। 'प्रदेशाः' पदका सम्बन्ध यहाँ हो जाता है। अनन्त और असंख्यातमें इयत्ताका अपरिच्छेद होनेसे तुल्यता नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि इनका महान अन्तर 'नृस्थिती परावरे' सूत्र में बता आये हैं।