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६६४ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[श मानते हैं, अतः जब आठों कोंका नाश होनेसे शरीरका वियोग हो जाता है तो अशरीरी आत्मा निष्क्रिय बन जाता है। क्योंकि कारणके अभावमें कार्यका अभाव होना सर्वसिद्ध है। जो क्रिया कर्म और नोकर्मके निमित्तसे आत्मामें होती है उसका अभाव कर्मनोकर्मके अभावमें हो ही जाना चाहिए, पर आत्माकी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति रूप क्रिया तो मुक्तके भी स्वीकार की जाती है। मुक्तमें भी अनन्तवीर्य ज्ञान दर्शन और सुखानुभवन आदि क्रियाएँ होती ही रहती हैं। आगे दसवें अध्यायमें पूर्वप्रयोग और असंगत्व आदि कारणोंसे मुक्तोंकी ऊर्ध्वगतिका समर्थन किया भी है।
६ १७. पुद्गलद्रव्योंके भी स्वाभाविक और प्रायोगिक दोनों प्रकारकी क्रियाएँ होती हैं।
६१८-१६. क्रिया क्रियावान् द्रव्यसे अभिन्न है; क्योंकि वह उसीका परिणामविशेष है, जैसे कि अग्निकी उष्णता। जिस प्रकार उष्णताको अग्निसे भिन्न माननेपर अग्निके अभावका ही प्रसंग होता है उसी तरह यदि क्रियाको भिन्न माना जायगा तो द्रव्य स्पन्दरहितनिष्क्रिय हो जायगा और इस तरह क्रियावाले द्रव्योंका अभाव ही हो जायगा। दंड स्वतःसिद्ध है, अतः उसके सम्बन्धसे पुरूपमें 'दंडी' यह व्यपदेश हो सकता है पर क्रिया तो द्रव्यसे भिन्न-पृथकसिद्ध नहीं है अतः दंडीकी तरह 'क्रियावान्' व्यपदेश नहीं हो सकता।
६२०-२१. समवाय सम्बन्धके द्वारा 'क्रियावान' व्यपदेश मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि यदि क्रिया और क्रियावान् द्रव्यमें अयुतसिद्धत्व-अभिन्नत्व माना जाता है तो द्रव्य और क्रियाका पार्थक्य ही नहीं रहता, फिर सम्बन्ध कैसा ? यदि भिन्नता मानी जाती है तो अयुतसिद्ध सम्बन्ध नहीं बन सकेगा । क्रिया और क्रियावान् द्रव्यमें तो भेद देखा जाता हैक्रिया क्षणिक और सकारण है जब कि द्रव्य अवस्थित और अकारण है। यदि दोनोंमें अभेद माना जायगा तो द्रव्यकी तरह क्रिया भी नित्य और अकारण हो जायगी, और क्रियाकी तरह द्रव्य भी क्षणिक और सकारण हो जायगा।
६२२-२५. महान् अहंकार तथा परमाणु आदि क्रियावान होकर भी नित्य माने जाते हैं अतः दीपकके दृष्टान्तसे जीवमें क्रियावान् होनेसे अनित्यत्वका प्रसंग नहीं आ सकता। सर्वानित्यत्ववादीका यह हेतु असिद्ध है कि-"सव पदार्थ प्रत्ययजन्य हैं और निरीहक हैं' क्योंकि ऐसा माननेपर क्रियावत्त्वका लोप हो जायगा। जैन पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिसे क्रियावान जीवादि द्रव्योंको अनित्य भी मानते हैं। इसी तरह द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिसे जव नित्यत्व है तब हम उसे प्रदीपकी तरह क्रियावाला भी नहीं मानते । अतः इस पक्षमें प्रदीप दृष्टान्त भी ठीक नहीं है। द्रव्यार्थिककी प्रधानतामें सभी पदार्थ उत्पाद और व्ययसे शून्य हैं, निष्क्रिय हैं
और नित्य हैं । पर्यायर्थिकनयसे ही पदार्थों में उत्पाद और व्यय होते हैं, वे सक्रिय और अनित्य हैं। इस तरह अनेकान्त समझना चाहिए ।
असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मेक्जीवानाम् ॥ ८ ॥ धर्म अधर्म और एक जीवके असंख्यात प्रदेश हैं।
६१-२. गिनती न हो सकनेके कारण वे असंख्येय हैं। वे गिनतीकी सीमाको पार कर गये हैं। जैसे सर्वज्ञ अनन्तको अनन्त रूपमें जानता है उसी तरह वह असंख्यातको असंख्यात रूपमें जानता है। इस तरह सर्वज्ञतामें कोई बाधा नहीं है। यहाँ अजघन्योत्कृष्ट असंख्येय लेना चाहिए। " ६३-४. एक अविभागी परमाणु जितने क्षेत्रमें ठहरता है उसे प्रदेश कहते हैं । धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोकको व्याप्त करके स्थित हैं, ये निष्क्रिय हैं। जीव असं