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तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार यहाँ लागू हो जाते हैं। यदि जीवमें 'जीवत्व' के सम्बन्धसे जीव प्रत्यय होता है तो 'जीवत्व' में अन्य 'जीवत्वत्व' के सम्बन्धसे प्रत्यय माननेपर अनवस्था दूषण होता है। यदि इस अनवस्था दोषके भयसे 'जीवत्व' को स्वतःसिद्ध मानते हो तो 'अर्थान्तरके संसर्गसे प्रत्यय होता है। इस प्रतिज्ञाकी हानि होजायगी। अतःजिस प्रकार जीवत्व स्वतःसिद्ध है उसी तरह जीवको भी स्वतःसिद्ध मान लेना चाहिए। प्रदीपकी तरह 'जीवत्व' में स्वतः प्रत्यय मानना उचित नहीं है। क्योंकि उसी तरह जीवमें भी स्वतःप्रत्यय माननेमें कोई बाधा नहीं है। 'चूंकि जीव और जीवत्व दोनों भिन्न पदार्थ हैं अतः उनमें समानता नहीं लाई जा सकती' यह तर्क उचित नहीं है। क्योंकि जीव और जीवत्व भिन्न पदार्थ ही नहीं हैं। फिर आपके मतसे तो दूसरे पदार्थका धर्म दूसरे पदार्थमें आ ही जाता है जैसे कि सत्ताका 'सत्प्रययहेतुत्व' धर्म द्रव्य गुण और कर्ममें आता है। यदि सत्ताका सम्बन्ध होनेपर भी द्रव्यादिमें सत्प्रत्ययहेतुता नहीं है किन्तु सत्तामें ही है तो फिर द्रव्यादिको खरविषाणकी तरह 'सत्' ही नहीं कह सकेंगे। अतः जीवनक्रियासे उपलक्षित द्रव्य विशेषमें 'जीव' यह संज्ञा अनादिपारिणामिकी और स्वभावभूत है।
३. यद्यपि आगे 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इस सूत्रगत द्रव्यलक्षणसे ही धर्मादिमें द्रव्यता सिद्ध थी, फिर भी यहाँ द्रव्योंकी गिनती नियमके लिए की है। धर्म अधर्म आकाश पुदल और जीव कालके साथ मिलकर छह द्रव्य होते हैं अतिरिक्त द्रव्य नहीं हैं । अतः अन्य मतवालोंने जो द्रव्यसंख्याएँ मानी हैं उनकी निवृत्ति हो जाती है। वैशेषिक नव द्रव्यवादी हैं। उनका इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है । पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मन, रूप रस गन्ध और स्पर्शवाले होनेसे पुद्गल द्रव्यमें अन्तर्भूत हैं । वायु रूपवाली है क्योंकि उसमें घट आदिकी तरह स्पर्श पाया जाता है। चक्षुके द्वारा न दिखनेके कारण रूपका अभाव नहीं किया जा सकता, अन्यथा परमाणु आदिका भी अभाव हो जायगा। मन दो प्रकारका है-द्रव्यमन और भावमन । भावमन ज्ञानरूप है, वह जीवका गुण होनेसे आत्मामें अन्तर्भूत है। द्रव्यमन रूपादिवाला होनेसे पौगलिक है । परमाणु आदि अतीन्द्रिय पदार्थ रूपादिवाले होकर भी आँखोंसे नहीं दिखते अतः न दिखने मात्रसे मनमें रूपादि वस्तुका अभाव नहीं किया जा सकता। 'मन ज्ञानोपयोगका करण होनेसे रूपादिवाला है चक्षु इन्द्रियकी तरह' इस अनुमानसे मनमें रूपादिका सद्भाव सिद्ध होता है। शब्द भी पौद्गलिक होनेसे मूर्तिक है। वायु और मनके पुद्रलपरमाणुओंमें भी स्कन्ध होनेकी योग्यता है, अतः वे भी स्कन्ध बनते हैं। पार्थिव और जलीय आदि रूपसे परमाणुओंमें जातिभेद नहीं है, क्योंकि पार्थिव चन्द्रकान्तमणिसे जलकी, जलसे पार्थिव मोती आदिकी जातिसंकररूपसे उत्पत्ति देखी जाती है । दिशाका भी आकाशमें अन्तर्भाव हो जाता है, सूर्योदय आदिकी अपेक्षा आकाशके प्रदेशों में ही 'यह इससे पूर्व है' आदि दिग्व्यवहार हो जाता है।
६४. जीवोंकी अनन्तता और विविधता सूचन करनेके लिए 'जीवाश्च' यहाँ बहुवचनका प्रयोग किया है । संसारी जीव गति आदि चौदह मार्गणास्थान, मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थान, सूक्ष्म बादर आदि चौदह जीवस्थानोंके विकल्पसे अनेक प्रकारके हैं। मुक्त जीव भी एक दो तीन संख्यात असंख्यात समयसिद्ध, शरीराकार, श्रवगाहना आदिके भेदसे अनेक प्रकार के हैं।
६५-८, यदि 'द्रव्याणि जीवाः' ऐसा इकट्ठा एक सूत्र बनाते तो च शब्द न देनेके कारण लघुसूत्र तो होता परन्तु इससे जीव ही द्रव्य कहे जा सकते धर्मादि नहीं। 'द्रव्याणि' में जो बहुवचन है वह तो अनेक प्रकारके जीवोंके सामानाधिकरण्यके लिए ही सार्थक हो जाता हैउससे धर्मादिमें द्रव्यता सिद्ध नहीं हो पायगी । यद्यपि 'अजीवकायाः' इस सूत्रसे अजीवाधिकार चल रहा है परन्तु जब 'द्रव्याणि जीवाः' एक सूत्र बना दिया जाता तो स्वभावतः जीवोंमें ही द्रव्यता फलित होगी अजीवोंमें नहीं। अधिकार रहनेपर भी जब तक उस प्रकारका प्रयत्न न