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तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[ २ तथा अपनी स्वाभाविक शक्ति स्व प्रत्यय है। बाह्य प्रत्ययोंके रहनेपर भी यदि द्रव्यमें स्वयं उस पर्यायकी योग्यता न हो तो पर्यायान्तर उत्पन्न नहीं हो सकती। दोनोंके मिलनेपर ही पर्याय उत्पन्न होती है, जैसे पकने योग्य उड़द यदि बोरेमें पड़ा हुआ है तो पाक नहीं हो सकता
और यदि घोटक (न पकने योग्य ) उड़द बटलोई में उबलते हुए पानीमें भी डाला जाय तो भी नहीं पक सकता । यद्यपि पर्यायें या उत्पाद-व्यय उस द्रव्यसे अभिन्न होते हैं तथापि कर्तृ और कर्ममें भेद-विवक्षा करके 'द्रवति गच्छति' यह निर्देश बन जाता है। जिस समय द्रव्यको कर्मपर्यायोंको कर्ता बनाते हैं तब कर्ममें दुधातुसे 'य' प्रत्यय हो ही जाता है, और जब द्रव्यको कर्ता मानते तब बहुलापेक्षया कर्तामें 'य' प्रत्यय हो जाता है। तात्पर्य यह कि उत्पाद और विनाश आदि अनेक पर्यायोंके होते रहनेपर भी जो सान्ततिक द्रव्यदृष्टिसे गमन करता जाय वह द्रव्य है।
६२. अथवा, द्रव्य शब्दको इवार्थक निपात मानना चाहिए। 'द्रव्यं भव्ये' इस जैनेन्द्र व्याकरणके सूत्रानुसार 'द्रु' की तरह जो हो वह 'द्रव्य' यह समझ लेना चाहिए। जिस प्रकार बिना गांठकी सीधी द्र-लकड़ी बढ़ई आदिके निमित्तसे टेबिल कुरसी आदि अनेक आकारोंको प्राप्त होती है उसी तरह द्रव्य भी उभयकारणोंसे उन उन पर्यायोंको प्राप्त होता रहता है । जैसे 'पाषाण खोदनेसे पानी निकलता है' यहाँ अविभक्तकर्तृक करण है उसी तरह द्रव्य और पर्यायमें भी समझना चाहिए।
६३. प्रश्न-जैसे दण्डके सम्बन्धसे देवदत्तमें दंडी व्यवहार और ज्ञान होता है उसी तरह द्रव्यत्व नामके सामान्य पदार्थके सम्बन्धसे पृथिवी आदिमें 'द्रव्य' यह व्यवहार हो जायगा । इसीसे वह गुण कर्म आदिसे व्यावृत्त भी सिद्ध हो जाती है। अतः द्रव्यत्वके सम्बन्धसे ही द्रव्य मानना चाहिए न कि पर्यायोंको प्राप्त होनेसे । उत्तर-उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार दंडके सम्बन्धसे पहिले देवदत्त अपनी जाति आदिसे युक्त होकर प्रसिद्ध है और देवदत्तके सम्बन्धके पहिले दंड अपने लक्षणोंसे प्रसिद्ध है उस तरह द्रव्यत्वके सम्बन्धके पहिले न तो द्रव्य ही प्रसिद्ध है और न द्रव्यत्व ही। यदि द्रव्यत्वके सम्बन्धके पहिले द्रव्य उपलब्ध हो तो द्रव्यत्वके सम्बन्धकी कल्पना ही व्यर्थ है। इस तरह दोनों जब सम्बन्धसे पहिले असत् हैं तब उनके सम्बन्धकी कल्पना ही नहीं हो सकती। अस्तित्व भी मान लिया जाथ, पर जब उनमें पृथक्-पृथक् शक्ति नहीं है तब मिलकर भी स्वप्रत्ययोत्पादनकी शक्ति नहीं आ सकती । जैसे कि दो जन्मान्धोंको एक साथ मिला देनेपर भी दर्शन-शक्ति उत्पन्न नहीं होती, उसी तरह द्रव्य और द्रव्यत्वमें जब द्रव्य-प्रत्यय और व्यवहारकी शक्ति नहीं है तब दोनोंके सम्बन्ध होने पर भी वह व्यवहार नहीं हो सकेगा। यदि द्रव्यत्वके सम्बन्धके पहिले भी द्रव्य अपनेमें द्रव्यव्यवहार करा सकता था तो द्रव्यत्वकी कल्पना ही निरर्थक है। इसी तरह द्रव्यत्व भी द्रव्यसमवायके पहिले द्रव्यव्यवहारका निमित्त नहीं बन सकता। द्रव्यत्वके सम्बन्धके पहिले यदि द्रव्यका 'सत्' स्वरूप भी होता तो द्रव्यत्वका सम्बन्ध मानना उचित होता किन्तु द्रव्य स्वतः सत् भी नहीं है, वह तो सत्ताके समवायसे 'सत्' होता है। यदि असत् में भी सत्तासमवाय माना जाता है तो खरविपाणमें भी होना चाहिए । किंच, द्रव्यत्व सामान्य सर्वगत है, अतः यदि अतदात्मक द्रव्यमें वह समवायसम्बन्धसे रहता है तो गुण और कर्म आदिमें भी रहना चाहिए। यदि द्रव्य तदात्मक है अतः उसमें ही द्रव्यत्वका समवाय होता है, तो फिर द्रव्यत्वके समवायकी कल्पना ही निरर्थक है। यह कहना भी ठीक नहीं है कि द्रव्य चूँकि समवायिकारण है अतः द्रव्यत्वका समवाय उसीमें होता है गुण कर्म या खरविषाण आदिमें नहीं, क्योंकि द्रव्यत्वसम्बन्धके पहिले जब द्रव्यका कोई स्वरूप ही नहीं है तब किसे समवायिकारण कहा जाय ? यदि निःस्वरूप द्रव्य समवायिकारण हो सकता है तो