________________
[ १४ ]
७६२
गुप्ति
मूल पृ० हिन्दी.पृ०
मूल पृ० हिन्दी पृ० तीर्थकर नामकर्म
' ५८० ७५५ मिथ्यादर्शनकी निवृत्तिपूर्वक गणधरत्व श्रु तज्ञाननिमित्तक है, चक्र
सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका क्रम ५८७ ७६० धरत्वादि उच्चगोत्र निमित्तक हैं ५८० ७५५ सम्यमिथ्यादृष्टि
५८६ ७६१ गोत्रकर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ ५८० ७५६ अविरतसम्यग्दृष्टि
५८६ ७६१ उच्च गोत्र ५८० ७५६ संयतासंयत
५८६ ७६२ नीच गोत्र ५८० ७५६ प्रमत्तसंयत
५६० ७६२ अन्तरायकी उत्तरप्रकृतियों ५८० ७५६
अप्रमत्तसंयत भोग और उपभोगमें भेद ५८१ ७५८ अपूर्वकरण
५६० ७६२ ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय और
अनिवृत्तिकरण
५६० ७६२ अन्तरायकी उत्कृष्ट स्थिति ५८१ ७५६
सूक्ष्मसाम्पराय
५६० ७६२ एकेन्द्रियादिके ज्ञानावरणादिकी
उपशान्तकषाय
५६० ७६२ उत्कृष्ट स्थिति
५८१ ७५६ क्षीणकषाय
५६० ७६२ मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति
सयोगकेवली ५८२ ७५६
५६० ७६२ एकेन्द्रियादिके मोहनीयकी उत्कृष्ट
अयोग केवली
५६० ७६२ स्थिति
५८२ ७५७
मिथ्यात्वादिनिमित्तक प्रकृतियोंका नाम ओर गोत्रकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ५८२ ७५७ उन उनके अभावमें संवर ५६. ७६२ एकेन्द्रियादिकी उत्कृष्ट स्थिति ५८२ ७५७ गुप्ति समिति आदि संवरके कारण ५६, ७१३ आयुकर्मको उत्कृष्ट स्थिति ५८२ ७५७ एकेन्द्रियादिके श्रायुको उत्कृष्ट स्थिति ५८२ ७५७
समिति
५६१ ७६३ वेदनीयकी जघन्य स्थिति ५८३
धर्म
५६१ ७६३ नाम और गोत्रकी जघन्य स्थिति ५८३ ७५७
अनुपेक्षा
५६१ ७६३ शेष कर्मों की जघन्य स्थिति ५८३
परीषहजय
५६२ ७६३ अनुभागबन्धका लक्षण
चारित्र ५८३ ७५७
५६२ ७६३ कर्मों के नामके अनुसार अनुभाग
तपसे निर्जरा भी होती है ५१२ ७६४ वन्ध होता है
५८३ ७५८ तप अभ्युदयका हेतु होकर भी मुख्यफल देनेके बाद कर्मो की निर्जरा
तया निर्जराका हेतु है
५६३ ७६४ होती है ५८३ ७५८ मुक्तिका लक्षण
५६३ ७६४ दो प्रकारको निर्जरा
५८४ ७५८ ईर्या भाषा आदि समितियाँ
५६३ ७६५ कर्मकी घातिया प्रकृतियाँ। ५८३ ७५८ ईर्यासमिति
५६४ ७६५ प्रदेशबन्धका स्वरूप
५८५ ७५१ चौदह जीवस्थान
५६४ ७६५ पुण्य प्रकृतियाँ
५८६ ७५६ भाषा-समिति
५६४ ७६५ पाप प्रकृतियाँ
५८६ ७५६ एषणा-समिति
५६४ ७६५ आदाननिक्षेपण-समिति
५६४ ७६५ नवाँ अध्याय उत्सर्ग-समिति
५६४ ७६५ संवरका लक्षण ५८६ ७६० पात्रग्रहणकी अनुपयोगिता
५६४ ७६५ । संवरके दो भेद
५८७ ७६० ___ उत्तमक्षमा आदि इस धर्म ५६५ ७६६ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ५८७ ७६० धर्मका प्रयोजन
५६५ ७६६ सासादन सम्यग्दृष्टि ५८७ ७६० क्षमा
५६५ ७६६
७५७