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88/श्री दान-प्रदीप
देखकर किसी एक परिव्राजक ने उसके पास विधियुक्त आकाश का अवलम्बन करेनवाली विद्या ग्रहण की। क्या कला नीच से ग्रहण नहीं की जा सकती? फिर वह परिव्राजक चम्पानगरी में गया। वहां अपने त्रिदंड को आकाश-मण्डल में अलंकृत करने से वहां के महापुरुष उसकी पूजा करने लगे। उसकी प्रसिद्धि का श्रवण करके राजा ने भी उसका बहुमान किया।
एक बार राजा ने उससे पूछा-“हे पूज्य! क्या यह तुम्हारे तप की शक्ति है या किसी विद्या की शक्ति है?"
उसने कहा-“हे राजन! यह मेरी विद्या की शक्ति है।"
राजा ने कहा-"तुम्हे विद्या सिखानेवाला गुरु कौन है और वह कहां है?" ___ तब परिव्राजक ने लज्जावश अपने नापित गुरु का नाम नहीं बताया। कपोल-कल्पना के द्वारा राजा से कहा-"हिमालय के महातीर्थ में रहनेवाला तपस्वी विमुक्ति देव नामक मेरे विद्यागुरु थे।"
इस प्रकार गुरु के नाम को छिपाने से निवपने के पाप से दूषित उस पर क्रोधित होते हुए किसी देव ने उसका त्रिदण्ड खड़खड़ करते हुए पृथ्वी पर गिरा दिया और आकाशवाणी के द्वारा उसके पाप को जगजाहिर किया। यह सुनकर राजादि सर्व जनों ने उस त्रिदण्डी की निन्दा की।
अतः अगर दोनों लोक में विद्या के शुभ फल की वांछा हो, तो बुद्धिमान मनुष्य को सर्वथा प्रकार से गुरु का निसव नहीं होना चाहिए।
व्यंजन-व्यंजन, अर्थ और तदुभय के द्वारा श्रुत को शुद्ध रीति से पढ़ना चाहिए। अगर अशुद्ध रीति से पढ़ा जाय, तो श्रुत की अवश्य ही आशातना होती है। व्यंजन अक्षर को कहा जाता है। अगर अक्षरों को न्यूनाधिक करके पढ़ा जाय, तो अवश्य ही उभयलोक में कष्ट की प्राप्ति होती है, अक्षरों के न्यूनाधिक होने से अर्थ में भी न्यूनाधिकता आती है। अर्थभेद से क्रिया में भेद होता है। क्रियाभेद से इच्छित अर्थ का नाश और अनर्थ की प्राप्ति होती है। यहां वर्ण को बढ़ाने पर कुणाल की कथा कही जाती है, जिसे सुनो
इस भरतक्षेत्र में पाटलिपुर नामक नगर था। वहां मौर्य वंश रूपी समुद्र में उल्लास करने में चन्द्र के समान और बिन्दुसार राजा का पुत्र अशोकश्री नामक पवित्र चरित्रयुक्त राजा राज्य करता था। उसे किसी रानी से उत्पन्न कुणाल नामक पुत्र था। उस पर अत्यन्त स्नेह होने के कारण राजा ने उसकी बाल्यावस्था में ही उसे उज्जयिनी नगरी प्रदान की थी। राजा के आदेश से सुभट उसके जीवन की रक्षा करते थे। फिर जब वह आठ वर्ष का हुआ, तो सुभटों