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86/श्री दान-प्रदीप
कर पाता था। इसके विपरीत शरीरादि से पुष्ट उसका छोटा भाई स्वेच्छापूर्वक निरन्तर सुख से आहार करता था, सुख से सोता था और सुखपूर्वक ही अपना जीवन व्यतीत करता था। उसे देखकर सुबुद्धि-रहित होकर आचार्य विचार करने लगा-"अहो! मेरे इस लघु भ्राता को धन्य है! दिन-रात सुखपूर्वक रहता है। मैं तो अजाकृपाण न्याय से ज्ञान रूपी बंधन में जकड़ा हुआ कैसे दुःख को प्राप्त हो रहा हूं!"
इस प्रकार ज्ञान पर द्वेषभाव आने से आचार्य वाचनादि कार्यों में उद्वेग को प्राप्त होने लगा। स्वाध्याय का अवसर होने पर भी वह अपने शिष्यों को कहता कि आज तो अस्वाध्याय है। इस तरह ज्ञान की आशातना करने से उस दुर्बुद्धि ने ज्ञानघातक कर्मों का बंध किया। प्रमादी मनुष्य कौनसा दुष्कर्म नहीं करता? इस प्रकार के ज्ञान के कृत अतिचारों की आलोचना किये बिना ही चारित्र धर्म की आराधना के कारण वह मरकर सौधर्म देवलोक में देव बना। वहां से च्यवकर किसी ग्राम में ग्वाले का पुत्र बना। युवा होने पर उसका किसी योग्य कन्या के साथ लग्न किया गया। कालान्तर में उसे सार्थक नामवाली सुरूपा कन्या प्राप्त हुई। वह कन्या कामदेव रूपी हाथी की मस्त क्रीड़ा करने के लिए वन के समान युवावस्था को प्राप्त हुई। एक बार वह पिता सुरूपा को गाड़ा हांकने के स्थान पर बिठाकर घी बेचने के लिए नगर की और चला। उसके रूप से मोहित कई ग्वाल पुत्र भी घी बेचने के बहाने से उसके साथ गाड़े ले-लेकर चलने लगे। मार्ग में आगे चलते हुए गाड़े पर बैठी हुई उस कन्या को वे लोग एकाग्र चित्त से देखने लगे, जिससे उनके गाड़े व मन उन्मार्ग में प्रवर्तित होने लगे। परस्पर भिड़ते हुए उनके गाड़े विनाश को प्राप्त हुए। अजितेन्द्रियता मनुष्य को क्या-क्या नहीं दिखाती? क्रुद्ध होकर उन सभी ने मिलकर उन दोनों का अशकटा और अशकटापिता नाम से पुकारना शुरु कर दिया। यह सब देखकर सुरूपा के पिता को निश्चय में सच्चा वैराग्य उत्पन्न हुआ। लघुकर्मियों को अल्प निमित्त से भी वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। अतः उसने किसी ग्वाल पुत्र के साथ धनसहित अपनी कन्या का विवाह कर दिया। स्वयं ने किसी विशाल गच्छ में प्रव्रज्या अंगीकार की। उद्यमपूर्वक योगवहन व क्लेश सहन करते हुए वह श्रुत पढ़ने लगा। अनुक्रम से श्री उत्तराध्ययन के तीन अध्ययन सीख लिये। चौथे अध्ययन को सीखते हुए पूर्वबद्ध ज्ञान की अवज्ञा के कर्म उदय में आये, क्योंकि कृत कर्मों का भोगे बिना छुटकारा नहीं है। उसके बाद आयम्बिल करके दो दिन तक प्रयत्न करते हुए भी उसके हृदय में एक भी पद स्थिर नहीं हुआ। तब गुरुदेव ने उससे कहा-“हे वत्स! जब तक तूं यह पढ़ नहीं लेता, तब तक तुझे इसकी अनुज्ञा नही दी जा सकती और तब तक तुझे आयम्बिल ही करना होगा।"
यह सुनकर उसने कहा-"ठीक है, मैं भी आयम्बिल ही करूंगा।"