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65/श्री दान-प्रदीप
स्थान को प्राप्त करता है तथा परभव में कुगति को प्राप्त करके असंख्य दुःखों का स्थानरूप बनता है।
दूसरी यथार्थ नामवाली भक्षिका, जो कि इच्छानुसार भोजन करती थी, तो भी 'अन्नदासी की तरह दुःख का निवास स्थान बनी। इसी प्रकार पंच महाव्रत की धुरा को छोड़कर आहारादि में लोलुप हुआ जो साधु निरन्तर आजीविका के लिए ही व्रतों का उपयोग करता है, वह वेष के कारण यथेष्ट प्रकार का आहारादि प्राप्त करता है, परन्तु वह विद्वानों द्वारा मान्य नहीं बनता और परभव में भी अत्यन्त दुःखी बनता है।
जिस प्रकार तीसरी बहू रक्षिका कोष का रक्षण करने में निपुण, सुखी, व लोकमान्य बनी, उसी प्रकार जो साधु पाँच व्रतों का निरतिचार रूप से समग्र प्रमाद को छोड़कर अच्छी तरह पालन करता है, वह आत्महित में ही रुचिवान होने से इसलोक में तो प्रशंसापात्र बनता ही है, परलोक में भी असंख्य सुखों को और कालक्रम से अक्षय मोक्ष को भी प्राप्त करता
जिस प्रकार चौथी बहु रोहिणी की बुद्धि वृद्धि को प्राप्त थी, जिससे उसने व्रीहि के दानों की वृद्धि की थी, इसी कारण से वह सबसे छोटी होते हुए भी सबकी स्वामिनी बनी और अत्यन्त प्रतिष्ठा को प्राप्त हुई। उसी प्रकार यतना में तत्पर जो साधु इन पंच महाव्रतों को पालता है, सर्व सिद्धान्तों को पढ़कर दूसरों को भी पढ़ाता है, वह गौतमस्वामीजी की तरह सर्वसंघ में प्रधानता प्राप्त करते हुए स्व-पर-उपकारिणी प्रधान सम्पदा को प्राप्त करता है। जगत का पूजनीय बनकर तीर्थ की उन्नति करते हुए तथा परतीर्थियों का पराभव करते हुए अनुक्रम से मोक्षपुरी में जाता है। अतः तुम भी पंच महाव्रतों को वृद्धि प्राप्त करवाओ, जिससे रोहिणी की तरह उत्कृष्ट गौरव को प्राप्त कर पाओ।"
इस प्रकार श्रीगुरुदेव के वचनामृत का पान करके विजय मुनि ने चित्त में आनन्द प्राप्त किया और प्रयत्नपूर्वक संयम का पालन करने लगे। उन्होंने श्रीगुरुदेव के पास प्रयत्नपूर्वक शास्त्रों का अभ्यास किया, क्योंकि सत्कर्म का अनुष्ठान सम्यग्ज्ञान के आधीन है। अनुक्रम से उन्हें योग्य जानकर श्रीगुरुदेव ने अपने स्थान पर स्थापित किया। गुरु योग्य शिष्य को विशेष उन्नति प्राप्त करवाते हैं। फिर श्रीगुरुदेव ने उनको शिक्षा प्रदान करते हुए कहा-"यह आचार्य पद गौतमादि गणधरों के द्वारा वहन किया हुआ है। यह सिद्धि रूपी महल का प्रतिष्ठान है और सर्व पदों के मध्य सर्वश्रेष्ठ पद है। अतः हे वत्स! प्रमाद का त्याग करके शिष्यों की सारणादि करके उन्हें वाचनादि देने में उद्यमवन्त रहना। सुखशील बनकर मन में
1. भोजन के मेहनताने पर रखी हुई दासी।