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61 / श्री दान- प्रदीप
दिया और विज्ञप्ति की "हे पिताश्री ! यह शत्रु होने पर भी अत्युत्तम मनुष्य है। धैर्य, पराक्रम, गांभीर्य आदि गुणों का आधार है। अतः आप इन पर अपनी प्रसन्न दृष्टि रखें।"
यह सुनकर राजा ने उसे सत्कारपूर्वक उसकी पूर्वस्थिति में अर्थात् राजा के रूप में नियुक्त किया। महापुरुष घर आये हुए शत्रु पर भी अनुग्रह ही करते हैं।
फिर राजा ने वय से लघु चन्द्रसेन कुमार को बुद्धि, पराक्रमादि गुणों द्वारा ज्येष्ठ मानते हुए उसे युवराज पद प्रदान किया। साथ ही उसे विशाल चतुरंगिणी सेना भी प्रदान की। योग्य पुत्र पर कौन पिता प्रसन्न न होगा?
छोटे भाई पर पिता का अत्यधिक सम्मान - भाव देखकर अपना अपमान महसूस करते हुए बड़े भाई विजय ने खेदपूर्वक विचार किया - " मेरे रहते हुए पिता की राज्यलक्ष्मी अगर छोटा भाई भोगे, तो यह तो मेरे मान को जलांजलि ही है । मेरा सम्मान तो खत्म हो गया । ऐसे भाई को, जिसका छोटा भाई उसीका मान खण्डित करे, उसका जन्म ही निरर्थक है। उसका तो मर जाना ही बेहतर है। मनस्वी पुरुषों के लिए तो उनका मान ही जीवन है। अगर उनका मान खण्डित होता है, तो वे जीवित रहते हुए भी मरे हुए के समान हैं। मान खण्डित हो जाने के बाद भी जो कायरता के कारण घर या शरीर का त्याग नहीं करते, वे मनुष्य कुत्ते के समान हैं। पर दोनों लोक का अहित करनेवाला देहत्याग स्त्रियों की तरह करना योग्य नहीं है। जीवित मनुष्य सैकड़ों कल्याणों को देख सकता है - यह बात लोक में प्रसिद्ध है। अतः मुझे इस समय अपने घर का ही त्याग कर देना चाहिए। सूर्य भी तो जब निस्तेज होता है, तो अपने स्थान का त्याग कर देता है।"
इस प्रकार विचार करके विजय बिना किसी को बताये हाथ में खड्ग लेकर अकेला वहां से प्रयाण कर गया। अनुक्रम से चलते-चलते वह पिता के राज्य का उल्लंघन करके उड्डियाण नामक देश में आया। वहां एक उद्यान में रहे हुए योग - धुरन्धर कीर्त्तिधर नामक मुनीश्वर को देखा | ध्यान में लीन होने के कारण वे अपनी दृष्टि नासिका के अग्र भाग पर स्थिर करके एकाग्र चित्त से ध्यान में समाधिस्थ थे। उन्हें देखकर विजय विचार करने लगा-“अहो! इन महात्मा का शरीर एकमात्र शांति के परमाणुओं से निर्मित है। अहो ! इनकी आकृति समग्र विश्व के प्राणियों को विश्वास उत्पन्न करानेवाली है । ये ही उत्कृष्ट तीर्थ हैं, ये ही उत्तम मंगल हैं, ये ही बन्धुरहितों के बन्धु हैं और ये ही सभी के वास्तविक बन्धु हैं। वास्तव में इन तपस्वी के दर्शन से प्राणियों की सभी आपत्तियाँ इस प्रकार दूर भागती हैं, जिस प्रकार सिंह को देखते ही सियाल भाग जाते हैं। जो इनको नमस्कार करते हैं या इनकी पूजा करते हैं, उनके हस्तकमल में तत्काल सर्व अर्थ की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। अतः