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53/श्री दान-प्रदीप
इससे स्वयं को अपमानित मानकर क्रोध से धमधमायमान चन्द्रसेन कुमार सभा से बाहर जाने के लिए तत्काल खड़ा हुआ। उसे इस तरह देखकर सारी सभा क्षोभ को प्राप्त हुई। तब राजा ने उसका हाथ पकड़कर प्रेमपूर्वक अपने पास बिठाते हुए प्रेमयुक्त शब्दों में कहा-“हे वत्स! बिना कारण तुम क्यों क्रोधित होते हो? क्या तुम राज्य की रीति- नीति नहीं जानते कि बड़े भाई के हाजिर रहते हुए छोटे भाई को आदेश देना योग्य नहीं? यह तो कौनसा बड़ा कारण है? बल्कि पितातुल्य बड़े भाई के हाजिर रहते हुए भी कदाचित् छोटे भाई को राज्य दिया जाय, तो कुलवान छोटे पुत्र उस राज्य की वांछा ही नहीं करते। कोई अज्ञात मनुष्य कदाचित् क्रमविरुद्ध मान दे भी, तो समझदार पुरुष उसे अपना अपमान मानते हैं। निर्मल चित्तवाले किसी भी मनुष्य पर ईर्ष्या करना उचित नहीं है। तो फिर उत्कृष्ट गुणयुक्त और पितृतुल्य बड़े भाई पर तो कैसे मत्सर भाव धारण किया जा सकता है? अतः हे वत्स! मात्सर्य भाव छोड़कर तुम मन से स्वस्थ बनो, जिससे कि लोक में कुन्द पुष्प की तरह उज्ज्वल कीर्ति को प्राप्त कर सको।" ।
इस प्रकार समझाने पर भी उसे शांति प्राप्त नहीं हुई। तब राजा के कथन से 'सामभेद में निपुण प्रधान ने कहा-“हे कुमार! आप स्वामी के वचनों को बार-बार प्रतिकूल क्यों मानते हैं? माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाला क्या पुत्र कहलाता है? तुम अपनी आत्मा को अविनय रूपी कर्दम से क्यों मलिन बनाते हो? विनय के द्वारा ही निर्मल कीर्ति स्फुरित होती है। कीर्ति ही पुरुष का जीवन है। प्राण को तो मात्र व्यवहार से ही जीवन कहा जाता है। दुष्कीर्ति रूपी दुःख से दग्ध प्राणियों का तो मर जाना ही श्रेष्ठ है। सर्वत्र राजपुत्रों को तो विनय की खान ही कहा जाता है। अतः अगर राजपुत्र ही विनय का त्याग कर देंगे, तो विनय की गति क्या होगी? उसका आधार कौन होगा? उस-उस शुद्धि को प्राप्त विनयवान पुत्र स्वर्ण की तरह सभी का अलंकार रूप बन जाता है।"
इस प्रकार मीठी, हितकारी शिक्षा के द्वारा मंत्री ने कुमार के क्रोध रूपी संताप को दूर करके उसे स्वस्थ बनाया।
उसके बाद विजय प्राप्त करने के लिए उत्सुक बना विजय कुमार वाद्यन्त्रों के द्वारा दिशाओं को ध्वनित करता हुआ चतुरंगिणी सेना के साथ शत्रु की तरफ चला । अनुक्रम से चलते-चलते राजपुत्र ने अपने देश की सीमा के पास सैन्य का पड़ाव डाला। फिर दूत को अपना अभिप्राय बताकर सेवाल राजा के पास भेजा। उस दूत ने सेवाल राजा के पास जाकर अपने स्वामी का संदेश सुनाया-"बल का विचार किये बिना युद्ध का आरम्भ करना
1. समझाने में।