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38/श्री दान-प्रदीप
को प्राप्त हो जायं, मैं ऐसा कुछ करूं।"
इस प्रकार दुष्ट बुद्धि से विचार करके वह व्यन्तर स्वयं स्वर्णपुरुष के रूप में प्रत्येक प्रहर में नीचे गिरा। इस व्यन्तर की मूर्खता को धिक्कार है! कि पूर्व में उन व्यक्तियों ने इस पर जरा भी द्रोह नहीं किया था, फिर भी इसने वृथा ही उन पर द्रोह किया। उन्होंने पूर्वभव में इसको जानबूझकर या द्वेषवश नहीं जलाया था। पर इस पिशाच की माया के कारण ये चारों कुमार लोभ रूपी महापिशाच के द्वारा व्याकुल चित्तवाले होकर परस्पर एक-दूसरे की घात कर बैठे। इस प्रकार बदला लेकर वह व्यन्तर प्रसन्न हो गया, क्योंकि मनुष्यों के तो प्राण जाते हैं और व्यन्तरों के लिए यह क्रीड़ा होती है। हे शिष्य! इस प्रकार सकल विश्व क्रोध, लोभादि के द्वारा क्लेश को प्राप्त होता है।"
इस प्रकार परस्पर शंका-समाधान करके वे दोनों मुनि आगे बढ़ गये।
हे राजा! इस प्रकार वैभव के लोभ में अन्धा हुआ प्राणी इस भव में मरणादि अनेक अनर्थों को प्राप्त होता है और मरण के बाद भी दुर्गति को ही प्राप्त करता है। अगर सन्तोष से तृप्त हुए पण्डित पुरुष विधि के अनुसार धन का धर्ममार्ग में उपयोग करते हैं, तो वह धन सुखकारक भी बन सकता है। ___संक्षेप में कहा जाय, तो जिसके साथ धर्म का संबंध हो, वे सभी वस्तुएँ सुखदायक ही होती हैं और जिसके साथ धर्म का दूर-दूर तक नाता न हो, वे सभी कष्टदायक होती हैं। जिस प्रकार लता की वृद्धि का कारण वृष्टि है, उसी प्रकार यह धर्म ही 'अन्वय और व्यतिरेक रूप से सर्व सुख और समृद्धि का कारण है।
इस प्रकार गाय के दूध की तरह मधुर श्रीगुरुदेव की देशना का आस्वादन करके राजादि सर्वजनों का संताप दूर हुआ और सभी अत्यन्त आनंद को प्राप्त हुए। उसके बाद राजा ने श्रीगुरुदेव से पूछा-"हे प्रभु! उन चार सेवकों ने राजा की आज्ञा से अनजानपने में एक मनुष्य का घात किया और उन्हें जो इस प्रकार का फल प्राप्त हुआ, तो निरन्तर सैकड़ों निरपराधी प्राणियों का नाश करनेवाले हम जैसों की क्या गति होगी? हमें तो सातवीं नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।"
गुरुदेव ने फरमाया-“हे राजन्! तुम्हारा कथन यथार्थ है। पूर्वोपार्जित कर्मों का ऐसा ही दुष्ट उदय होता है। वध, बंध, छेदादि द्वारा जो-जो कर्म पूर्व में उपार्जित किया हो, उसका विपाक जघन्य से भी दसगुणा ज्यादा होता है-ऐसा सिद्धान्त में कहा गया है। इस विषय
1. जिसके होने पर जो होता है, वह अन्वय कहलाता है। जैसे धूम के होने पर अग्नि का होना। 2. जिसके न होने पर जो न हो, वह व्यतिरेक कहलाता है। जैसे अग्नि न हो, तो धूम भी नहीं होता।