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402/श्री दान-प्रदीप
प्रशस्तिसहित इस ग्रंथ का प्रमाण अनुष्टुप श्लोकों की गिनती करते हुए 6675 श्लोक होते हैं। शेषनाग रूपी दैदीप्यमान जिसका नाल है, दिशा रूपी जिसके विशाल पत्तों का समूह है और मेरुपर्वत रूपी जिसकी कर्णिका है, ऐसे आकाश रूपी कमल में जब तक मनोहर गतियुक्त सूर्य
और चन्द्र रूपी दो राजहंस क्रीड़ा करते हैं, तब तक सम्यग्दृष्टि प्राणियों के लिए मोक्षनगर के मार्गों को प्रकाशित करता यह दैदीप्यमान दानधर्म रूपी दीप जिनप्रवचन रूपी घर में चारों तरफ प्रकाश विकीर्ण करे।
|| इति प्रशस्ति।। ।। इति दानप्रदीप ग्रंथ समाप्त।।