________________
376 / श्री दान- प्रदीप
उस आहार के द्वारा पारणा किया।
उसके बाद उसकी पत्नी ने हर्षपूर्वक विविध प्रकार के मनोहर और दिव्य भोजन का तिरस्कार करनेवाली रसोई परोसी । वह सेठ परिवार और मंत्री के साथ भोजन करने लगा । तभी रसोइए की नजर चूकने से बिल्ली ने दही के पात्र को नष्ट कर दिया। यह देखकर रसोइया निराश हो गया और विचार करने लगा कि अहो! आज मुझसे कितना बड़ा अपराध हुआ है ? अब मैं क्या करूं?
इस प्रकार रसोइया अत्यन्त चिन्तातुर हुआ, पर तभी अन्य ग्राम से बहुत अधिक दही उस सेठ के घर भेंट के रूप में आया । अमृत के पिण्ड के समान चिकनाईयुक्त उस दही को खाकर अत्यन्त चिकने हुए हाथों को कपूर के चूर्ण से सुवासित किये जल के द्वारा श्रीभोगदेव व मंत्री ने परिवार के साथ हाथों को धोकर आचमन किया। फिर भोगदेव तेरह गुणों से युक्त सुगन्धित ताम्बूल का स्वयं भक्षण किया और अपने हाथों से मंत्री को भी दिया। फिर कुछ समय तक स्वर्ण के पलंग पर आराम करके जागृत होने के बाद शरीर पर चन्दन का लेप करके उस बुद्धिमान मंत्री के साथ विविध प्रकार की धर्मचर्चा आदि की । सायंकाल होने पर विधियुक्त श्रीजिनेश्वर की पूजा की और देव - गुरु के स्मरणपूर्वक आत्मा को पवित्र करके श्रेष्ठी और मंत्री ने हंस के समान रूई की रजाई के साथ स्वर्ण के पलंग को अलंकृत किया।
ऐसी विविध प्रकार की भोगदेव की समृद्धि का हृदय में ध्यान करते हुए मंत्री की निद्रा दूर चली गयी। तभी उसने मध्यरात्रि को आकाशवाणी सुनी - "हे अधम रसोइया! तूं इस घर में से निकलने लायक है, क्योंकि दही के पात्र के विषय में तुमसे प्रमाद हुआ है। फिर भी मैंने दही लाकर तुम्हारे प्रमाद को ढंक दिया है ।"
ऐसी वाणी को सुनकर मंत्री ने इधर-उधर चारों तरफ दिशा - विदिशा दृष्टि डाली, तभी कान्ति के द्वारा दिशाओं को दैदीप्यमान करती हुई और अलंकारों से शोभित किसी दिव्य स्त्री को देखा। मंत्री तुरन्त पलंग पर से उठ खड़ा हुआ और आश्चर्यपूर्वक कहा - "हे भद्रे ! तुम कौन हो? तुमने अभी-अभी यह क्या कहा ? "
उस देवी ने कहा- “हे मंत्री ! मैं निधिदेव और भोगदेव - दोनों की कुलदेवी हूं। हे निष्कपट! मैंने तेरा संशय दूर करने के लिए ही यहां आकर इस प्रकार के वचन कहे हैं। अथवा तुम इन दोनों श्रेष्ठी के पूर्वभव के बारे में सुनो
इस भोगदेव ने पूर्वभव में आदरपूर्वक पात्रदान किया था, अतः उसे अद्भुत भोग प्राप्त हुआ है, क्योंकि विधिपूर्वक दिया गया दान किस शुभ के लिए नहीं होता? पर इस मूढ़ निधिदेव ने पूर्वभव में पात्रदान देकर भी आदरभाव को जीवन में नहीं उतारा। अतः भोगरहित