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374/श्री दान-प्रदीप
धोकर उठ गया। सेठ ने अपने मुख में सुपारी की जगह खेर के लकड़े की छाल डाली और अतिथि को भी वही दी।
इस प्रकार उसके घर की यह निन्दित चेष्टा देखकर मंत्री मन में विस्मय, खेद और हास्य से पूर्ण हुआ। उस सेठ की तरह मंत्री ने भी मुख में वही छाल डाल ली, क्योंकि विद्वान समय का अनुसरण करनेवाले होते हैं। ___उसके बाद वह सेठ मंत्री को साथ लेकर नगर में निकला। थोड़ी-सी लेन-देन के लिए ग्राम में जगह-जगह वणिकों के साथ कलह करते हुए शाम तक बिना विश्राम लिए पूरे नगर में हवा की तरह भटकता रहा। रात्रि में घर आकर खुद के सोने के लिए जो टूटी हुई खाट और चीथड़ों का बना हुआ बिस्तर मंत्री को सोने के लिए दिया और स्वयं पैरों को धोये बिना ही रंक की तरह भूमि पर ही सो गया। उसके धन और दुष्ट आचार-विचार संबंधी तर्क-वितर्क से, खाट के कचकच शब्द और बिस्तर की दुर्गन्ध से खराब स्थिति में रहे हुए उस सुमंत्र मंत्री को छोड़कर अपमान को प्राप्त स्त्री की तरह निद्रा उससे दूर चली गयी।
"यह तीन प्रहरवाली रात्रि आज करोड़ पहरवाली हो गयी है, यह कैसे खत्म होगी?"-इस विचार से मंत्री मन में पीड़ित होने लगा। तभी अकस्मात् उसके कान में कहीं से शब्द आया-'हे मूर्ख वंठ! तूं कैसे स्वयं को दूध देता? वास्तव में तो तूं योग्यतारहित ही है। तेरे उस अयोग्य आचरण को ही मैंने दूध का पात्र गिराकर दूर किया था।"
ऐसे शब्दों को सुनकर मंत्री के नेत्र खुल गये। उसने अपने समीप एक दिव्य स्त्री को देखा। यह वृत्तान्त उस वंठ के भी जानने में नहीं आया। फिर स्त्री चली गयी। मंत्री ने भी अपने मन में ही तर्क-वितर्क करते हुए रात्रि व्यतीत की।
प्रातःकाल होने पर वह निधिदेव की आज्ञा लेकर भोगदेव श्रेष्ठी के घर गया। वह घर अत्यन्त शोभा से युक्त था। उस घर पर अनेक स्वर्णकलश स्थापित किये हुए थे, अतः मानो स्वर्गलोक से विमान उतरा हो-इस प्रकार प्रतीत हो रहा था। वह जब श्रेष्ठी के घर में प्रवेश करने लगा, द्वारपाल उसे देखकर तुरन्त खड़ा हुआ। मंत्री को बैठने का आसनादि देकर उसका उचित सत्कार किया। विवेकी के घर पर रहे हुए चाकर भी विवेकी ही होते हैं। तभी भोगदेव राजसभा से घर लौटा। वह श्रेष्ठ विशाल अश्व पर आरूढ़ था। उसके चारों ओर सिपाही चल रहे थे। बन्दीजनों की स्तुति के द्वारा चारों ओर कोलाहल व्याप्त था। शरीर पर मूल्यवान वस्त्र धारण किये हुए थे। चारों तरफ फैलती हुई कान्ति के द्वारा मानो अपने पुण्य-समूह को दिखा रहा हो-इस प्रकार स्वर्णाभूषणों के द्वारा दिशाओं को दैदीप्यमान बना रहा था। पृथ्वी पर आये हुए इन्द्र की तरह वह शोभित हो रहा था। इस तरह उसको आता