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371 / श्री दान- प्रदीप
उसने अच्युत देवलोक के आयुष्य का बंध कर लिया ।
उसी समय लक्ष्मी के मद से अपनी ग्रीवा को ऊँचा रखनेवाले अभिनव श्रेष्ठी के घर भगवान पधारे। सेठ की आज्ञा से दासी ने प्रभु को पारण करवाया। उस समय जीर्णश्रेष्ठी ने आकाश में देवों द्वारा बजाया हुई दुन्दुभि का नाद सुना । अतः खेदखिन्न होकर वह विचार करने लगा—“हहा! मैं मन्दभागी हूं। मेरे सारे मनोरथ निष्फल हुए।"
उस समय अगर उसने उस देव - दुन्दुभि का नाद न सुना होता, तो उस प्रकार के चढ़ते परिणामों की धारा से उसने कुछ ही समय में केवलज्ञान प्राप्त कर लिया होता। दान दिये बिना ही मात्र शुभ परिणामों से जीर्ण सेठ ने उस प्रकार की दिव्य ऋद्धि प्राप्त कर ली । उधर अभिनव श्रेष्ठी के घर पर भगवान का पारणा होने के बावजूद भी वह भावरहित होने के कारण वह कुछ भी फल प्राप्त नहीं कर सका। उसके घर पर जो रत्न - वृष्टि हुई, वह तो अरिहंतों की भक्ति के पराधीन रहे हुए देवों ने ही की। उन्होंने अभिनव श्रेष्ठी के भावों से प्रसन्न होकर रत्नवृष्टि नहीं की । उस सेठ ने तो अरिहन्त की आशातना के द्वारा पापकर्मों का
बंध किया, क्योंकि किसी भी पात्र की अवज्ञा करना ठीक नहीं है, फिर जिनेश्वरों की अवज्ञा का तो कहना ही क्या? अतः सम्पूर्ण फल की इच्छा रखनेवाले पुरुष को तो सभी पात्रों को शुभ भावपूर्वक दान देना चाहिए। सुपात्र को तो और भी विशेष रूप से शुद्ध भावों के साथ दान देना चाहिए ।
इस प्रकार तीन तरह के आदर से मनोहर दान जो देता है, वह श्लाघनीय संपत्ति को प्राप्त करता है और जो आदर रहित दान देता है, वह विपत्ति को प्राप्त करता है। उस पर निधिदेव और भोगदेव की कथा है, जो निम्न प्रकार है :
तमालिनी नामक प्रसिद्ध नगर चैत्यों के शिखर पर लहराती ध्वजाओं के द्वारा शोभित था। उसमे विशाल चतुरंगिणी सेना का स्वामी श्रीमित्रसेन नामक राजा राज्य करता था। उसके सार्थक नाम को धारण करनेवाला सुमंत्र नामक मंत्री था । जैसे समग्र नदियाँ समुद्र का आलिंगन करती हैं, वैसे ही समग्र बुद्धियाँ उस मंत्री का आलिंगन करती थीं।
उस नगरी के उद्यान में एक बार श्रीविनयंधर नामक गुरुदेव पधारे। उनका आगमन सुनकर हर्षपूर्वक राजा, मंत्री और पौरजनों ने आकर उन्हें वंदन किया। गुरुदेव ने कानों को अमृत के समान लगनेवाली धर्मदेशना उन्हें प्रदान की- "बुद्धिमान मनुष्यों को दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त करके निरन्तर धर्म करना चाहिए । नये मेघों के द्वारा लता के समान धर्म के द्वारा सर्व सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं और उदयप्राप्त सूर्य के द्वारा रात्रि के अन्धकार की तरह विपत्तियाँ अवश्य ही नाश को प्राप्त होती हैं। यह धर्म दान, शील, तप और भाव के भेद से चार प्रकार का है। उनमें भी दान मुख्य है, क्योंकि जिनेश्वर देव भी दानधर्म का आदर करते हैं और