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365/श्री दान-प्रदीप
नहीं है।"
इस प्रकार की घटना सुनकर यक्ष श्रावक मन में खेदखिन्न हो गया। पश्चात्तापपूर्वक उसने कहा-“हे पूज्य! मुझ पर प्रसन्न बनें। अब फिर से पात्र सामने रखें। जिससे फिर से घी का दान करके मैं देवायु का बंध कर पाऊँ ।" ___मुनि ने कहा-“हे भद्र! मात्र घी का दान देने से आयुष्य का बंध नहीं होता, बल्कि देवायु के बंध में अध्यवसाय ही एकमात्र कारण है। वह शुद्ध अध्यवसाय मन में कुछ भी आशंसा रखे बिना सुपात्र को दान देने से ही बनता है। आशंसायुक्त दान देने से दातार के मन में क्रय-विक्रय करनेवाले के समान स्थिति बनती है। अतः पण्डितजन आशंसारहित दान की ही प्रशंसा करते हैं।" ___इस प्रकार कहकर मुनि वहां से लौट गये। शुद्ध बुद्धि से युक्त होकर यक्ष श्रावक ने अपनी आत्मा की खेदपूर्वक निन्दा की। फिर आशंसा-रहित विधियुक्त दानधर्म की आराधना करके सद्गति को प्राप्त किया और अनुक्रम से मोक्ष को प्राप्त किया।
इस भव और परभव संबंधी आशंसा रखे बिना कोई भी पुरुष पात्रदान करके इस लोक में भी धन के समान कीर्ति और संपत्ति को प्राप्त करता है। उस धन की कथा इस प्रकार
___ लक्ष्मी से मण्डित सुसीम नामक एक ग्राम था। उसमें जगत के जीवों को आनन्द प्रदान करनेवाला धन नामक व्यापारी रहता था। जैसे रोहणाचल पर्वत में स्वभाव से ही मणियाँ रही हुई होती हैं, वैसे ही धन में उदारता, विनय, लज्जा और चतुराई आदि सद्गुण स्वभाव से ही शोभित थे। उसी के गुणों के अनुरूप उसके धनश्री नामक प्रिया थी। पुण्य की वृद्धि होने पर ही समान शीलवाले दम्पति का मिलाप होता है।
__ एक बार वहां समयामृत नामक आचार्य पधारे, क्योंकि सूर्य के समान धर्मगुरु अन्यों के उपकार के लिए ही विचरण करते हैं। उसके बाद परजनों के साथ धन भी गरुदेव के पास गया और उन्हें नमन किया, क्योंकि भद्र परिणाम से युक्त जीव अन्यों को साथ लेकर धर्मकार्य में जुड़ते हैं। गुरु की देशना का श्रवण करके धन ने देशविरति धर्म को अंगीकार किया, क्योंकि बुद्धिमान मनुष्यों का संस्कार स्वर्ण की तरह सरलता से हो सकता है। फिर उसने घर आकर अपनी भार्या से स्वयं के द्वारा धर्म के अंगीकार की बात कही। तब उसने भी श्रावक धर्म को अंगीकार किया। सती स्त्रियाँ पति का ही अनुगमन करती हैं। वह धन श्रेष्ठी हमेशा त्रिकाल में जिनपूजा आदि धर्मकार्य करने लगा। विवेकी पुरुष कभी भी कर्त्तव्य में प्रमाद नहीं करते। वह पात्रदानपूर्वक एकान्तर से भोजन किया करता था, क्योंकि भोजन तो वही होता है,