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348/श्री दान-प्रदीप
इस प्रकार शुभ ध्यान रूपी शुद्ध जल से उस पल्लीपति ने स्वयं के बहुत से पापों का प्रक्षालन कर दिया, फिर अनुकम्पा से निर्मल बना हुआ वही पल्लीपति आयुष्य पूर्ण कर हे ध्वजभुजंग तुम बने हो। पूर्वभव में हर्ष से मुनियों को शुद्ध वस्त्र का दान करने के पुण्य से यह विशाल राज्य तुझे प्राप्त हुआ है। सौभाग्य, उज्ज्वल यश, दीर्घायुष्य, दैदीप्यमान पराक्रम, अतुल समृद्धि, उत्तम कुल में जन्म, सर्व इच्छित की प्राप्ति, अनिष्टों का नाश-यह सब पूर्वजन्म के बोये हुए पुण्य रूपी वृक्ष के फल हैं। पूर्वजन्म में डकैती आदि के द्वारा जो दुष्कर्म किये थे, वह पाप प्रायः कर गर्दा, निन्दा आदि के द्वारा उसी भव में नष्ट किया था। फिर भी शेष रहे कर्म का विपाक इस भव में तुझे द्यूतरमण, दरिद्रता आदि के द्वारा दुःख के रूप में भोगने पड़े।"
इस प्रकार श्रीयशोधर्म सूरि के मुख से अपना पूर्वभव सुनकर ध्वजभुजंग राजा ने अंतर में आश्चर्य और आनंद प्राप्त करते हुए शुद्ध बुद्धि के द्वारा हृदय में विचार किया-"अहो! पात्रदान का प्रभाव वाणी के मार्ग का पथिक कैसे बन सकता है? क्योंकि वस्त्र मात्र का दान करने से मुझे विशाल राज्य प्राप्त हुआ। पाप के द्वारा मैं नरक के कुएँ में गिर रहा था, तो भी इस सद्धर्म का ध्यान करने से ही वह मुझे आलम्बन रूप बना है।"
इस प्रकार विचार करके ऊहापोह करते हुए शुद्ध अध्यवसाय के कारण कर्म का क्षयोपशम होने से उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसके बाद उस राजा ने अपने पूर्वभव का अतीत के वृत्तान्त की तरह स्मरण होने से हर्ष के द्वारा नेत्रों को विकस्वर करते हुए गुरुदेव से कहा-"हे भगवान्! मेरा पूर्वभव आपने बिल्कुल सही रूप में फरमाया है, क्योंकि मैंने जातिस्मरण ज्ञान के कारण अपना वह भव उसी प्रकार देखा है, जैसा आपने फरमाया है। अहो! आपका ज्ञान सीमातीत है, क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा भूत और भविष्य संबंधी वृत्तान्त प्रत्यक्ष की तरह देखा जा सकता है। जिस धर्म के द्वारा मुझ जैसा पापी इतनी अधिक समृद्धि को प्राप्त हुआ, वह धर्म मुझ पर कृपा करके इस भव में भी प्रदान करें।"
यह सुनकर श्रीयशोदेव गुरु ने मोक्षसंपत्ति की साक्षी रूप बारह व्रत के द्वारा मनोहर श्रावक धर्म उसे प्रदान किया। उसने भी हर्षपूर्वक ग्रहण किया। चिन्तामणि के समान दुर्लभ जैनधर्म को प्राप्त करके प्रसन्न हुआ राजा ध्वजभुजंग गुरु महाराज को वंदना करके अपने घर लौट आया। फिर उसने जनसमूह की दृष्टि को आनंद प्रदान करनेवाले अरिहंतों के चैत्य, स्वर्णमयी प्रतिमाएँ, भक्तियोग से अमूल्य साधर्मिक वात्सल्य, पाप का नाश करनेवाली और मनोहर रचना से युक्त जिनपूजा, अगणित धन को पवित्र करनेवाली अनेक तीर्थयात्राएँ और कृपारस रूपी जल की नीक के समान अमारी (जीवदया) आदि पुण्यकार्य को अपने समग्र देश में विस्तारित करके केवल अपनी आत्मा का ही उद्धार नहीं किया, बल्कि अरिहंत मत को भी उसने अत्यन्त उन्नति प्राप्त करवायी)