SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 328 / श्री दान- प्रदीप उसके पूछने पर सार्थवाह ने कहा- "उस पुर में कुबेर जैसी लक्ष्मीवाले अनेक धनाढ्य है। पर उपमारहित और अगण्य लावण्य रस की नदी के समान देवदत्ता नामक गणिका है। वह उस नगर का भूषण है। वास्तव में तो देवताओं ने मनुष्य के आनन्द के लिए मानो देवी प्रदान की हो - - यह उसका सार्थक नाम है, ऐसा पुरजन कहते हैं । सर्व प्रकार के गुण उत्पन्न करने में द्वेषी विधाता ने सर्वथा प्रकार से दोषरहित इसकी सृष्टि घुणाक्षर न्याय से ही की है। तीन भुवन में उसका अद्भुत सौभाग्य देखकर कामीजन देवांगनाओं को भी तृणवत् मानते हैं। मणि के द्वारा जैसे स्वर्ण अधिक शोभित होता है, वैसे ही चातुर्यादि गुणसमूह के द्वारा उसके सौभाग्य का वैभव विशेष रूप से शोभित होता है । वह नीच वंश में उत्पन्न होने के बावजूद भी सदाचार के द्वारा अद्वितीय मनोहरता को भजती है। क्या कमलिनी कादव में उत्पन्न होने के बावजूद भी निर्मलता का आश्रय नहीं करती? उसके केशपाश में ही कुटिलता रही हुई है, उसकी दृष्टि में ही चपलता रही हुई है और उसके मुख में ही दोषाकर (चन्द्र) रहा हुआ है। पर उसके मन में ये दोष सर्वथा प्रकार से नहीं है । चपलता, कुटिलता, कुशीलता और स्नेह-रहितता आदि दोष तजने के कारण उसने अपनी जाति की अपकीर्ति को दूर ही किया है।” इस प्रकार चित्त को चमत्कृत करनेवाले उस गणिका के चारित्र का श्रवणकर ध्वजभुजंग ने विस्मित होते हुए सार्थवाह से कहा - " स्त्रियों के मध्य शिरोमणि और गुणीजनों में अग्रसर उस गणिका को तुम मेरे ये हाथी भेंट कर देना । मेरे जैसा दरिद्री और जुआरी भी परोपकार करने में शक्तिमान बन सकता है, तो वह तुम्हारे ही आश्रय से। क्या मृग चंद्र के आश्रय से आकाश का पार नहीं पाता ?" यह सुनकर सार्थपति ने कुमार की परोपकारिता और निःस्पृहता से आश्चर्य पाकर आनन्दपूर्वक उसके वचन अंगीकार किये। उसके बाद वह हाथियों को लेकर वहां से रवाना हुआ । कुमार भी कितनी ही दूर उसे पहुँचाकर वापस लौटा। अनुक्रम से चलते हुए वह सार्थ कन्यकुब्ज नगरी में पहुँचा। उस समय उस नगरी का क्या वृत्तान्त था, उसे सुनो एक बार उस नगरी का राजा देवदत्ता गणिका के साथ हाथियों की शर्त लगाकर द्यूत खेलने लगा। अनुक्रम से खेलते हुए गणिका पाँचसौ हाथी हार गयी । धनाढ्य होने के बावजूद भी इतने हाथी एक साथ न मिलने से वह राजा को हाथी नहीं दे पायी । अतः वह राजा को पाँचसौ हाथियों का मूल्य देने लगी। पर राजा उसके रूप में लुब्ध हो चुका था । अतः उसे ही पाना चाहता था। इसलिए राजा ने गणिका से कहा - " हे सुन्दरी ! जब तक तूं मुझे साक्षात् पाँचसौ हाथी नहीं दे देती, तब तक तुझे मेरे ही आधीन रहना पड़ेगा ।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy