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291 / श्री दान- प्रदीप
उपालम्भ, परदेश में ऐसी विपत्ति और उसमें भी प्रिया का वियोग मुझे प्राप्त हुआ । अतः मेरे कर्मों की अभी विपरीत दशा चल रही है। ऐसी स्थिति में शोक करने से क्या लाभ? क्योंकि पूर्व कर्मों के उदय से ही जीव को संपत्ति या विपत्ति प्राप्त होती है । अतः निश्चय ही पूर्वजन्म में मैंने अखण्ड पुण्य नहीं किया है, जिससे राजपुत्र होते हुए भी मैं इस दशा को प्राप्त हुआ हूं। अथवा तो तत्त्वज्ञानी पुरुषों के लिए तो विपत्ति भी संपत्ति रूप ही है, क्योंकि विपत्ति भोगने से पूर्व के दुष्कर्मों का क्षय होता है ।"
इस प्रकार विचार करके उसने अपने मन को धीरज बंधाया । फिर फलादि खाकर अपनी क्षुधा शान्त की । उसके बाद भूमण्डल पर अटन करते हुए वह अनुक्रम से रत्नपुर नामक नगर में आया। वहां रत्नप्रभ नामक राजा राज्य करता था । उसकी स्त्रियों के मध्य रत्न के समान रत्नसुन्दरी नामक प्रिया थी । उसके लावण्य रूपी अमृतधारा के समान रत्नवती नामक कन्या थी । उसे देखकर युवा पुरुष देवांगनाओं को भी तृणवत् मानते थे ।
एक बार वह कन्या अपनी सखियों के साथ हर्षपूर्वक प्रमद नामक उद्यान में क्रीड़ा कर रही थी। उस समय किसी सर्प ने उसे निर्दयतापूर्वक डस लिया । चारों तरफ प्रसरती हुई उसकी विषतरंगों के द्वारा उसका सारा शरीर विष से व्याप्त हो गया। छेदी हुई जड़वाली लता की तरह वह भूमि पर गिरकर आलोटने लगी । राजाज्ञा से तुरन्त विष का उपचार करनेवाले वैद्य अनेक उपायों के द्वारा उसकी चिकित्सा करने लगे। पर जड़ पुरुष को दिये गये उपदेश की तरह सब निरर्थक सिद्ध हुआ । सैकड़ों उपाय भी कारगर नहीं हुए । तब दुःख से पीड़ित राजा ने मंत्रियों की सलाह से नगर के चौराहों पर पटह बजवाया - "जो पुरुष मेरे प्राणों से भी प्रिय पुत्री को स्वस्थ बनायेगा, वह रति के साथ कामदेव की तरह मेरी पुत्री के साथ विवाह उत्सव रचायेगा।”
इस प्रकार की उद्घोषणा सुनकर कन्या की प्राप्ति का लाभ देखकर भी कोई भी पुरुष उसी तरह पटह का स्पर्श नहीं कर पाया, जिस प्रकार पृथ्वी पर रहा हुआ पुरुष चन्द्र का स्पर्श नहीं कर पाता। पर कुमार ने निःस्पृह होने के बावजूद भी दयावश उस पटह का स्पर्श किया, क्योंकि महपुरुषों की कलाएँ परोपकार के लिए ही होती हैं। उस समय राजपुरुष प्रीतियुक्त होकर मानो कन्या का मूर्त्तिमान चैतन्य हो - इस प्रकार से उसे तुरन्त राजा के पास ले गये । राजा उसे देखते ही प्रसन्न हो गया। मेरी पुत्री अब तो जीवित ही है - इस प्रकार मानने लगा।
फिर प्रीतिपूर्वक बातचीत करके बन्धु की तरह उसे आनन्दित करके हर्षपूर्वक कहा - "हे वत्स! तुम्हारी आकृति से ही तुम्हारी कला - कुशलता प्रतीत होती है, क्योंकि आकृति ही समस्त गुणलक्ष्मी की स्वामी है । अतः हे महाशय ! इस कन्या को रोगरहित करके सम्पूर्ण नगरजनों में प्रीति उत्पन्न करो । अब विलम्ब करने का अवसर नहीं है ।"