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280/श्री दान-प्रदीप
बलिदान में तुझे सौंपता हूं। तूं राजा को छोड़ दे।"
यह सुनकर धनदत्त के सत्त्व से प्रसन्न होकर राक्षस ने राजा को छोड़ दिया। महात्माओं का सत्त्व स्व-पर का उपकार करने में ही व्रतयुक्त होता है। फिर राक्षस ने जाते समय प्रसन्न होकर धनदत्त को बारह करोड़ स्वर्ण प्रदान किया। परोपकारी मनुष्य को पग-पग पर संपत्ति की प्राप्ति होती है। राजा भी अत्यन्त हर्षित हुआ। धनदत्त का अनेक प्रकार से सम्मान किया। हर्षपूर्वक सर्व व्यापारियों के मध्य उसे मुख्य बनाया। विवेक रूपी कामकुम्भ के द्वारा धनदत्त का धन वृद्धि को प्राप्त हुआ और वह अड़सठ करोड़ स्वर्ण का स्वामी बना।
एक बार रत्नवीर राजा वसन्त ऋतु में अंतःपुर सहित आनन्दपूर्वक नगर के बाहर उद्यान में क्रीड़ा करने के लिए गया। वहां कुछ समय गीत सुनकर, कुछ समय नृत्य देखकर और कुछ समय वनलक्ष्मी का देखते हुए मध्याह्न का समय आ गया। तब पाकशाला के अधिकारियों ने दाल-चावल आदि मनोहर रसोई शीघ्रतापूर्वक तैयार करवायी। तभी देवभद्र नामक आचार्य श्रेष्ठ मुनियों के परिवार के साथ बारह योजन के उस अरण्य के भीतर सार्थ के साथ विहार करते हुए रास्ता भटककर सार्थ से अलग हो गये। पर स्वार्थ से रास्ता नहीं भूले थे। तृषा से पीड़ित थे, पर लोभ से पीड़ित नहीं थे। तपस्या के कारण उनका शरीर दुर्बल हुआ था, पर साधुओं के गुणों से वे पुष्ट थे। बाहर से वे मलसहित थे, पर अंतःकरण निर्मलता से शोभित था। बाहर अटवी में भटक जाने के कारण वे अवश्य थक गये थे, पर मोक्षमार्ग पर चलते-चलते वे जरा भी न थके थे। सूर्य के ताप से वे म्लानमुख हो चुके थे, पर किसी पर भी कोप करके वे तप्त नहीं हुए थे। क्षुधा के कारण उनकी स्थिति खराब हो गयी थी, पर एषणा की गवेषणा करने में वे स्वस्थ/सावधान थे। उन्होंने तीन दिनों तक लगातार अटवी का उल्लंघन किया था, पर भव–अटवी को वे अब उल्लांघनेवाले थे। उनमें से कितने ही मुनिवर अपने गुरु से वियुक्त हुए वहां आये। उन्हें देखकर राजा अत्यन्त आनन्दित हुआ। हर्ष के आवेग में राजा उनके सन्मुख गया। उन्हें नमन किया और अत्यन्त आग्रह करके अपने आवास पर लेकर आया। अत्यन्त भक्तिपूर्वक राजा ने उनको भोजन के लिए तथा अपने चित्त के समान स्वच्छ चावलों के धोये हुए जल के लिए आमन्त्रित किया। मुनियों ने भी उस जल को प्रासुक जानकर अपना नान्दीपात्र (तुम्बीपात्र) सामने रखा। राजा ने उसे जल से और अपनी आत्मा को सुकृत के द्वारा पूरित किया। उसकी श्रीदेवी आदि नौ प्रियाओं ने आदरसहित शुभ भावपूर्वक मुनियों को भोजन बहराया। उसे वापरकर मुनि स्वस्थ बने और मोक्ष के कारण रूप विविध प्रकार के संयम योग को साधने के लिए समर्थ बने। फिर सन्ध्या होने पर राजा अंतःपुर के साथ और परिवार सहित मुनिराज के पास गया। उन्हें ज्येष्ठ-कनिष्ठ के हिसाब से