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271/श्री दान-प्रदीप
बीजों को विधि-प्रमाण बो दिया। एक मुहूर्त में ही प्रफुल्लित पल्लवों से युक्त तथा फलवाली लता उत्पन्न हो गयी। उसके फलों के द्वारा धन्वन्तरि वैद्य के समान उसने अन्य औषधियों से ठीक न होनेवाले रोगों को भी ठीक कर दिया। उस समय वह एक-एक फल सौ, हजार, लाख आदि द्रव्य में बेचने लगा। इस उपार्जित धन द्वारा वह महा धनाढ्य बन गया। देवों की वाणी अवश्य ही शीघ्रतापूर्वक प्रामाणिक होती ही है।
एक बार वह वाहन में माल भरकर समुद्री मार्ग से व्यापार करने के लिए निकला, क्योंकि अपरिमित धन होने पर भी सन्तोष के बिना तृप्ति नहीं होती। वह अनुक्रम से अन्य द्वीप में पहुँचा। वहां माल का क्रय-विक्रय किया। वहां से भी असंख्य माल लिया। फिर वहां से वापस लौटा। मार्ग में उत्कट वायु के द्वारा समुद्र चारों तरफ से क्षोभ पाकर उछलने लगा। उसकी तरंगे गेंद की तरह वाहन को ऊपर उछालने लगीं। उस समय सिद्धदत्त और अन्य सभी लोगों के चित्त वाहन की तरह कम्पित होने लगा। सभी के जीवन संशय को प्राप्त होने लगे। आकुल-व्याकुल होते हुए लोगों ने सोचा कि अगर वाहन को हल्का कर दिया जाय, तो कदाचित् यह नहीं टूटेगा। ऐसा विचार करके निरुपाय बने सभी ने वाहन में से समग्र माल पानी में फेंक दिया। उसके बाद चपल तरंगों ने ज्यों-त्यों उस वाहन को एक सूने द्वीप में पहुंचा दिया। अब लोगों को जीने की आश बंधने लगी। वे लोग वाहन से उतरकर स्वस्थ होकर उस द्वीप के किनारे पर रहे। वहां रहते हुए अल्प समय में ही उनका अनाज खत्म हो गया। जल बिन मछली की तरह अनाज के बिना वे सभी अत्यन्त दुःखी हुए, क्योंकि अन्न ही मनुष्य का जीवन होता है।
उसके बाद सिद्धदत्त ने विधि के अनुसार उस भूमि पर वे बीज बोये । लता उग आयी और तुरन्त पल्लवों सहित फल प्राप्त हुए। कल्पलता की तरह उन लताओं के फल खाकर युगलिकों की तरह वे सभी उद्यम रहित होकर सुखपूर्वक वहां रहने लगे।
एक दिन उन फलों की गन्ध से आकृष्ट होकर एक जलमानुषी वहां आयी। उसने वे फल खाये। स्वादिष्ट वस्तु किसे अच्छी नहीं लगती? उसे फल खाते देखकर सिद्धदत्त ने उसका निषेध किया। फिर उस चतुर ने अपने हाथ में एक रत्न रखकर उसे दिखाया। उसने भी धूर्तता से जान लिया कि यह पुरुष मुझे कह रहा है कि अगर ऐसे रत्न लाकर दूं, तो वह मुझे फल खाने के लिए देगा। इस प्रकार जानकर फल में लुब्ध बनी वह जलमानुषी शीघ्रता से समुद्र के अन्दर डुबकी लगाकर रत्न लेकर आयी और सिद्धदत्त को दिया। उसने भी उसे फल दे दिया। वह जितने रत्न लाकर देती, सिद्धदत्त उसे उतने ही फल दे देता। जिसको जो वस्तु दुर्लभ होती है, उसे उसी वस्तु की इच्छा पैदा होती है। इस प्रकार उस जलमानुषी के साथ फलविक्रय में सिद्धदत्त ने इतने रत्नों का ढ़ेर इकट्ठा कर लिया, मानो