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260 / श्री दान- प्रदीप
दुःसाध्य कुष्ठ रोग का भी नाश कर सकता है । विषादि से मूर्च्छित जीवों को यह अमृत के समान जीवित बना देता है। इसके स्पर्शमात्र से भूतादिक बाधा दूर हो जाती है। इस रस से तिलक किया हुआ पुरुष युद्ध में देव व दानवों से पराभव को प्राप्त नहीं होता । चक्रवर्ती की निधि की तरह इसका स्व-पर- उपकार के लिए प्रयोग किये जाने पर भी यह कदापि क्षीण नहीं होता । तेरे पुण्य से प्रेरित होकर यह रस मैंने तुझे ही दिया है। यह तप किये बिना भी तुम्हारे सर्व मनोरथों को पूर्ण करेगा । हे मित्र ! जीवन - पर्यन्त इस रस का रक्षण जीवन से भी बढ़कर करना ।"
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इस प्रकार रत्नपाल को कहकर फिर उस देव ने महाबल राजा से कहा“भाग्य–सौभाग्यादि सर्व प्रकार के गुणों से अद्भुत यह पाटलिपुत्र का स्वामी रत्नपाल नामक राजा है। अगणित पुण्य के द्वारा ही ऐसा वर किसी कन्या को मिल सकता है।"
इस प्रकार कहकर राजा को प्रणाम करके वह देव अदृश्य हो गया । फिर खेचरेश्वर ने विचार किया—“अहो ! इस राजा के पुण्य की महिमा तो लोकोत्तर है, क्योंकि इसके मुश्किल - भरे कार्यों में देव सहायता करते हैं । वास्तव में मेरा भी अपार भाग्य जागृत हुआ है कि ऐसे सर्व गुणों का विधाता रूपी जामाता मुझे मिला है । "
इस प्रकार विचार करके चित्त में चमत्कृत होते हुए वह खेचरेन्द्र उस राजा को अपने विमान में बिठाकर अपने नगर में ले गया । पवित्र दिन देखकर अगण्य उत्सवपूर्वक जैसे कामदेव को रति और प्रीति परणाते हैं, वैसे ही रत्नपाल राजा को अपनी दोनों कन्याएँ परणायीं। फिर कितने ही दिनों तक उसे प्रीतिपूर्वक वहीं रखा । रत्नपाल राजा भी उन दोनों के साथ दिव्य भोग भोगने लगा ।
एक बार खेचरेश्वर महाबल राजा रत्नपाल के साथ राजसभा में बैठा हुआ था। उस समय किसी दूत ने आकर राजा को प्रणाम करते हुए विज्ञप्ति की - "हे राजन् ! इस वैताढ्य के ऊपर गगनवल्लभ नामक नगर है । उसमे वल्लभ नामक विद्याधर राजा राज्य करता है। उसके हेमांगद नामक पुत्र है। उस हेमांगद राजा के रूपलक्ष्मी के पात्र के समान सौभाग्यमंजरी नामक पुत्री है। उस पुत्री ने श्रेष्ठ वर पाने के लिए कुलदेवी की सेवा की थी, जिससे प्रसन्न होकर देवी ने उसे एक बार दिव्य वलय प्रदान किया और कहा - 'इस वलय के प्रभाव से तेरे सर्व मनोरथ पूर्ण होंगे।' फिर किसी दिन रात्रि के समय अरण्य में रहे हुए जिनचैत्य में जाकर वह नृत्य कर रही थी, उस समय उसका वह वलय उपयोगरहित होने के कारण कहीं गिर गया। जब उसे पता चला, तो वह अत्यन्त दुःखित हुई और उसने खाना-पीना छोड़ दिया । भवन में या वन में किसी भी स्थान पर उसे शांति नहीं मिलती थी । विद्याधरों ने चारों तरफ उस वलय की खोज की, पर खो गये चिन्तामणि रत्न की तरह