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226/श्री दान-प्रदीप
की नीच मार्ग में ही गति होती है। तब उस पुण्यवंत भद्र ने अत्यन्त आनन्द के साथ उससे कहा-“हे वत्स! यह तुमने बिना विचारे क्लेश क्यों शुरु किया है? समस्त कल्याण रूपी लता के समूह को जलाने में दावानल के समान क्लेश अन्य के साथ करना भी निन्दनीय है, तो फिर भाई के साथ क्लेश करने का तो कहना ही क्या? कौन बुद्धिमान मनुष्य द्रव्यादिक के लोभ से अपने ही भाई को ठगेगा, क्योंकि अन्य को ठगनेवाला अपनी आत्मा को ही ठगता है? मैं मानता हूं कि मैं कभी भी किसी को भी नहीं ठगता, तो फिर धर्म के मर्म को जाननेवाला मैं अपने भाई को कैसे ठग सकता हूँ? अतः तुम मत्सर भाव का त्याग करके हृदय को निर्मल बनाओ, जिससे पत्थर की रेखा की तरह हमारी प्रीति क्षय को प्राप्त न हो। अगर कदाचित् व्यापार आदि में हानि हो जाने से अगर तुम्हारा द्रव्य क्षीण हो गया है, तो तुम्हें जितना चाहिए, उतना धन मुझसे ले जा सकते हो, क्योंकि मेरे घर में रहा हुआ धन भी तुम्हारा ही है। हम दोनों में जो अलगाव है, वह मात्र अलग-अलग स्थान पर रहने के कारण ही है।"
इस प्रकार ग्रीष्म ऋतु के सूर्य के ताप से तप्त को जैसे चन्द्र अपनी कोमल किरणों के द्वारा शांति प्राप्त करवाता है, वैसे ही प्रीतियुक्त वचनों के द्वारा पहले अपने भाई को शांत किया और फिर अत्यधिक धन देकर उसे संतुष्ट किया, क्योंकि सत्पुरुष शरद ऋत के बादलों की तरह वाणी मात्र के ही सार से युक्त नहीं होते। अतिभद्र उसके दान और सन्मान से मन ही मन अत्यन्त प्रसन्न हुआ और आत्मा में विकस्वर होते हुए अपने बड़े भाई को हर्षपूर्वक कहने लगा-"आप वय से ही बड़े नहीं हैं, पर श्रेष्ठ गुणों के द्वारा भी आप बड़े हैं, क्योंकि आपकी वैसी ही धार्मिक बुद्धि दिखायी देती है। औदार्य, गांभीर्य और धैर्यादि गुणों के समुद्र के रूप में कहां आप और उत्कट क्रोधादि दोषों के संग से दूषित होकर कहां मैं? हम दोनों एक ही वंश में उत्पन्न हुए हैं, फिर भी क्षीरसमुद्र से उत्पन्न हुए अमृत और विष की तरह हम दोनों में कितना अन्तर है? अतः हे भाई! क्रोध में आकर मैंने जो कठोर वचन कहे हैं, उन्हें आप क्षमा करना। आज से आप मेरे लिए पिता की तरह पूज्य हैं।"
इस प्रकार अत्यन्त विशाल प्रेम रूपी अमृत रस से झरती हुई वाणी के द्वारा उसने बड़े भाई की श्रेष्ठ फलवाली प्रीति रूपी लता को नव पल्लव से युक्त बनाया। फिर हर्षित होकर धन लेकर अपने घर गया और युक्तिपूर्वक व्यापार आदि में उस धन का उपयोग किया। जैसे दीपक के द्वारा मध्य रात्रि में प्रकाश थोड़ी देर तक ठहर सकता है, वैसे ही उस धन के द्वारा उसे कितने ही समय तक सुख प्राप्त हुआ। फिर अनुक्रम से उस पुण्यहीन का वह धन भी क्षय को प्राप्त हुआ। छिद्रयुक्त घट में जल की स्थिति चिरकाल तक नहीं रह सकती । चन्द्र का उदय होने के पश्चात् जब उसका अस्त होता है, तब जिस प्रकार रात्रि अन्धकारमय हो जाती है, वैसे ही धन का क्षय हो जाने पर उसकी स्थिति पूर्ववत् ही दुःखमय बन गयी। उस