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221/ श्री दान-प्रदीप
स्तुति करने में कौन सक्षम बन सकता है? तुमने तो पत्थर लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया था, पर तुम्हें तो चिन्तामणि रत्न प्राप्त हुआ है। तुम्हारी सत्यव्रत में दृढ़ता, धर्म में विद्वत्ता और साहस त्रिभुवन में अनुपमेय है। मुझ जैसे लवण समुद्र से उत्पन्न होने के बावजूद भी तूं लक्ष्मी की तरह कुल की अलंकार रूप बनी है। तेर गुणों की श्रेणि विश्व में प्रशंसनीय है। हे पुत्री! तूं समस्त विवेकीजनों में उत्कृष्ट सीमा को प्राप्त है और मैं निर्विवेकीजनों में शिरोमणि हूं। तुमने धर्म को उज्ज्वल किया है और कुल का उद्योत किया है। अतः मैं मानता हूं कि तूं ही एकमात्र इस पृथ्वीतल पर धन्य है।"
___ यह सुनकर मदनमंजरी ने विनयपूर्वक पिता से कहा-“हे पिता! आप वृथा खेद न करें, क्योंकि यह कार्य आपने नहीं किया है, बल्कि उदयप्राप्त मेरे कर्मों ने ही किया है। कर्म ही प्राणियों की संपत्ति और विपत्ति का कारण है। हे पिता! जिस धर्म के द्वारा तत्त्व से समग्र कर्मादि स्थितियाँ जानी जा सकती हैं, उस जैनधर्म को आप तत्काल अंगीकार करें।"
यह सुनकर राजा ने प्रसन्न मन से सत्यधर्म को अंगीकार किया। फिर जामाता और पुत्री को गजेन्द्र पर बिठाकर महोत्सव के साथ अपने महल में ले जाकर राजा ने मनोहर वस्त्राभूषणादि प्रदान करके सत्कार किया। उन दोनों की कीर्ति जैसे-जैसे वृद्धि को प्राप्त हुई, वैसे-वैसे लोक में जिनधर्म की कांति प्रचार को प्राप्त हुई। जैनधर्म का प्रभाव जगत् में विशेष रूप से फैलने लगा। राजा ने अपनी प्रिया व परिवार के साथ विद्याधर राजा को भोजन करवाया।
फिर विद्याधर राजा अपने नगर की तरफ चला। अनुक्रम से अपने नगर को प्राप्त करते हुए विविध प्रकार के वाद्यन्त्रों के शब्दों द्वारा समग्र दिशाओं को वाचाल करते हुए और चतुरंगिणी सेना से परिवृत उस विद्याधर राजा ने अपने पुर में प्रवेश किया। उस समय उत्तम श्रृंगार को धारण करने से मदनमंजरी की सुन्दरता द्विगुणित हो रही थी। मानो दूसरी लक्ष्मी हो-इस प्रकार से वह सुखासन पर बैठी हुई थी। जैसे अतुल शील की निर्मलता से पराभव को प्राप्त गंगा नदी ही हो-ऐसे मनोहर चामरों की श्रेणि के द्वारा उसको चारों तरफ से वीजा जा रहा था। धर्म रूपी कल्पवृक्ष की मंजरी के समान उसका दर्शन राजा पुरजनों को करवा रहा था।
इस प्रकार नगर-प्रवेश करवाकर राजा ने उस प्रिया को अंतःपुर का अलंकार बनाया। गुणों के द्वारा प्रशंसनीय उसे विद्याधर राजा ने पट्टरानी बनाया। स्त्रियों पर पति की प्रीति कल्पलता की तरह फलप्रदाता होती है। धर्म के माहात्म्य को प्रत्यक्ष देखकर वे दोनों अपने चित्त को हमेशा धर्म में रमाया करते थे। हितेच्छुक पुरुष क्या कभी प्रत्यक्ष सिद्ध किये हुए कार्य में आलसी होते हैं? वह विद्याधर राजा विद्या के प्रभाव से हमेशा तीर्थों को वंदन करने